हेलो दोस्तों INDIA TODAY ONE blog में आपका स्वागत है। इस लेख में हम पांच प्राणों (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) के बारे में बात करेंगे और यह जानकारी हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। और अगर हम हठयोग से लाभ प्राप्त करना चाहते हैं। तो प्राणों को जान लेना बहुत जरूरी है। यहां हम जानेंगे की प्राण क्या है प्राण का अर्थ और प्राण का हमारे जीवन में क्या महत्व है। प्राण कितने प्रकार के होते हैं और और कौन सा प्राण हमारे शरीर के कौन से भाग पर स्थित है और उसके क्या कार्य है। इन सभी के बारे में हम इस लेख में जानेंगे।
प्राण का अर्थ।
प्राण का अर्थ है ‘जीवन शक्ति’,’सांस’। प्राण एक ऐसी ऊर्जा है। जो किसी न किसी रूप व स्तर पर सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है। प्राण ऊर्जा सभी जीव-जंतुओं में सूक्ष्म और सशक्त रूप से पाई जाती है। प्राण में निहित है ऊर्जा, ओज, तेज, वीर्य (शक्ति) और जीवनदायिनी शक्ति।
प्राण क्या है।
प्राण को अच्छे प्रकार से समझ लेना बहुत जरूरी है अगर हम praan को ठीक प्रकार से नहीं समझेंगे तो हम प्राणायाम से भी पूर्णतः लाभ प्राप्त नहीं कर सकते और इस बात को भी समझ लेना बहुत ज्यादा जरूरी है कि praan जिसको हम अनुभव करते हैं जो नासिका के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश करता है मात्र यही तक इसकी भूमिका नहीं है praan का जो विस्तार है वह बहुत अधिक है
उपनिषद, ग्रंथ आदि में भी praan ऊर्जा के विषय में विस्तार से बताया गया है। praan ऊर्जा को हम कुछ इस प्रकार से समझ सकते हैं कि एक ब्रह्मांडी ऊर्जा है। जो कि हमारे चारों ओर फैली हुई है। हम इस ऊर्जा को ग्रहण करते हैं और इसी से हमारे शरीर का हर एक अंग और शरीर की हर एक क्रिया चलती है। यहां तक कि हमारे सोचने-समझने की शक्ति हमारे विचार भी इस praan ऊर्जा के आधार पर ही चलते हैं। और ऐसा मानों की हमारे शरीर और मन की प्रत्येक क्रिया के साथ praan जुड़ा हुआ है।
अगर प्राणों में असंतुलन हो जाता है अगर हमें पर्याप्त मात्रा में praan ऊर्जा नहीं मिलती है या हम पर्याप्त मात्रा में प्राण ऊर्जा को ग्रहण नहीं करते हैं तो इसका स्पष्ट प्रभाव हमें हमारे शारीरिक और मानसिक स्थिति पर देखने को मिलेगा। हम अपने विचारों को अपने सोचने-समझने की क्षमता को खोने लगते हैं। हमारे शरीर से लेकर के हमारे मन तक सभी जो एक प्रकल्प है वह प्रभावित हो जाता है और हम कहीं ना कहीं अपनी गुणवत्ता और अपने स्वास्थ्य को भी खोने लगते हैं।
हमारे चारों ओर पर्याप्त मात्रा में praan ऊर्जा उपलब्ध है इस praan ऊर्जा को हम कितना ग्रहण कर सकते हैं। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है अगर हम इस praan ऊर्जा को अधिक मात्रा में ग्रहण कर लेते हैं तो हमारे शरीर के अंदर कार्य करने वाले जो पांच प्राण है। (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) वह विकसित हो जाते है और praan ऊर्जा का स्तर हमारे अंदर बढ़ना शुरू हो जाता है। जितना ज़्यादा praan ऊर्जा का स्तर बढ़ेगा हमारे शरीर की क्रिया क्षमता भी उतनी ही बढ़ती जाएगी हम ज्यादा आत्मविश्वास से युक्त हो जाएंगे हम में सोचने और समझने की क्षमता बेहतर होगी। हमारे विचारों में सकारात्मकता आएंगी।
इसको एक उदाहरण के माध्यम से समझने की कोशिश करें जैसे कि हमने देखा होगा दो व्यक्ति जो एक जैसी परिस्थिति से गुजरते हैं लेकिन उस परिस्थिति में एक व्यक्ति टूट जाता है और एक सक्षम होकर के खड़ा रहता है इसका कारण यही है कि कि जो सक्षम है उसके अंदर praan ऊर्जा का विकास हो चुका है उसके अंदर अधिक प्राण ऊर्जा है।
इसको हम एक और उदाहरण के माध्यम से समझने की कोशिश करते जैसे जब घरों तक आने वाली बिजली का वोल्टेज कम हो जाता है तो जो हमारे घरों में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे पंखे, कूलर हैं वो धीरे-धीरे चलने शुरू हो जाएंगे और जैसे-जैसे बिजली का वोल्टेज बढ़ेगा इलेक्ट्रिसिटी की सप्लाई बढ़ेगी उतना ही इलेक्ट्रॉनिक उपकरण तेज और बेहतर तरीके से चलने लगेंगे।
इसी प्रकार अगर हमारे शरीर में पर्याप्त मात्रा में praan ऊर्जा पहुंचती है तो हमारे शरीर का हर एक अंग और शरीर की एक-एक कोशिका बेहतर तरीके से काम करना शुरू कर देती है और जब हमारे शरीर की कोशिकाएं स्वस्थ एवं विकसित होती है तो यह हमारे शरीर की क्षमता को बढ़ती है हमको ऊर्जावान और युवा बनाती है।
अर्थात् हमारे अन्दर जितनी अधिक praan ऊर्जा होगी। हमारा स्वास्थ्य उतना ही अधिक स्वस्थ होगा। हमारे अन्दर सोचते-समझने की क्षमता अच्छी होगी। विचारों में सकारात्मकता आएंगी। मस्तिष्क सक्षम, बेहतर और शांत हो सकेगा। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होगा।
praan ऊर्जा के विषय में हठयोग का यह मूल सिद्धांत है हठयोग इसी के ऊपर टिका हुआ है अगर praan ऊर्जा का प्रयोग आप नहीं कर रहे हैं तो आप हट योग को भी ठीक से नहीं समझ रहे हैं हमारे शरीर में यह praan किस तरीके से कार्य करते हैं और कौन सा praan हमारे शरीर के किस हिस्से को प्रभावित करता है और अगर हम प्राणों का संतुलन कर लेते हैं praan ऊर्जा को बढ़ा लेते हैं तो कौन-कौन से फायदे हमको मिल सकते हैं।
चरक संहिता सूत्रस्थान 12/7 में महर्षि चरक ने प्राण को पाँच भागों में विभक्त किया है, और वशिष्ठ संहिता में प्राण 70 प्रकार के बताये गये हैं।
प्राण के प्रकार।
महर्षि चरक ने प्राण को पाँच भागों में विभक्त किया है।
- प्राण।
- अपान।
- समान।
- उदान।
- व्यान।
1. प्राण।
जो प्रमुख प्राण होता है वो प्राण नामक प्राण ही होता है। यह सभी प्राणों का राजा है। यही अपान, समान, उदान और व्यान नामक जो अन्य चार प्राण है इनको ऊर्जा प्रदान करता है इनका संतुलन बनाता है इनको व्यवस्थित करता है। जैसे राजाअ पने अधिकारीयों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है , वैसे ही यह भी अन्य चार प्राणों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है।
प्राण का स्थान हमारे कंठ के मूल से लेकर के हमारे फेफड़ों के नीचे वाले जो हिस्से तक है। यहां तक यह काम करता है यानी कि हमारी छाती का जितना क्षेत्र है उसमें यह प्राण नामक प्राण कार्य करता है। यह श्वास क्रिया पर नियंत्रण रखता है। अगर आप अपनी प्राण ऊर्जा को बढ़ाना चाहते हैं तो इस प्राण नामक प्राण पर ध्यान देना होगा।
2. अपान।
अपान का स्थान हमारे नाभि के मूल से लेकर के मूलाधार चक्र तक होता है। स्वाधिष्ठान चक्र भी इस अपमान के क्षेत्र में ही आता है। मूत्र, वीर्य और मल निष्कासन को नियंत्रित करता है। अपान बाह्यश्वास से क्रियाशील रहता है।
अगर किसी व्यक्ति का अपान प्रभावित हो जाता है तो वह चाहे स्त्री हो या पुरुष उनको बहुत सारी स्वास्थ्य संबंधित समस्याएं होने लगती हैं। आपने भी अनुभव किया होगा कि जब हमारे शरीर में विषाक्तता बढ़ जाती है पाचन ठीक नहीं होता तो फिर कब्ज़ की समस्या हो जाती है। पुरुषों में यौन सम्बंधित समस्याएं होने लगती है। स्वप्न दोष जैसी आजकल बहुत बढ़ती जा रही है। महिलाओं में मासिक धर्म (menstrual cycle) से संबंधित समस्याएं होती हैं। यह सभी अपान वायु कुपित होने के कारण होता है। क्योंकि हमारी बड़ी आंत और प्रजनन अंग अपान के अंतर्गत आते हैं क्योंकि जो अपान का क्षेत्र है वह हमारी बड़ी आंत और प्रजनन अंग को भी प्रभावित करता है। साथ ही साथ यह भी जान लें कि मूलाधार चक्र की जागृति के लिए भी अपन उत्तरदाई है क्योंकि अपन के क्षेत्र में ही मूलाधार चक्र है और कुंडलिनी जागरण के लिए भी है उत्तरदाई है।
3. समान।
समान वायु का स्थान प्राण और अपान वायु के बीच में अर्थात् नाभि से ऊपर और हमारी छाती से नीचे का जो क्षेत्र है। जिसमें हमारा डाइजेस्टिव सिस्टम आता है। यह उदर क्षेत्र को गतिशील करता है। पाचन क्रिया में सहायता करता है। उदर के अवयवों को ठीक ढंग से काम करने हेतु सुरक्षा प्रदान करता है।
अगर समान वायु ठीक प्रकार से काम नहीं करेगा तो हमारा पाचन तंत्र (Digestive System) ठीक प्रकार से काम नहीं करेगा और आज विज्ञान भी यह कहता है कि हमारे दिमाग का हमारे पाचन तंत्र से सीधा संबंध होता है। अगर पाचन तंत्र (Digestive System) ठीक नहीं है। तो दिमाग ठीक नहीं रह सकता और दिमाग ठीक नहीं है तो पाचन तंत्र (Digestive System) अर्थात् उदर क्षेत्र पर उसका प्रभाव पड़ना शुरू हो जाएगा।
कभी अनुभव किया होगा जब हम किसी बात को लेकर चिंतित होते हैं। दिमाग ठीक प्रकार से काम नहीं कर रहा है। stress में है depression में है तो हमें भूख अच्छे से नहीं लगती है। क्योंकि आपका पेट आपके दिमाग से संबंधित है। अगर हम समान वायु को संतुलित कर लेते हैं तो हमारा पाचन तंत्र (Digestive System) अच्छा बना रहेगा। और पाचन तंत्र अच्छे से कार्य करेगा तो हमारा दिमाग भी अच्छे से कार्य करेगा। और हमारी नाभी सही स्थान पर रहेगी कई लोगोंको naval displacement की समस्या होती है उसका कारण भी यही है कि समान वायु ठीक नहीं है
4. उदान।
उदान प्राण हमारे गर्दन के नीचे भाग से लेकर के हमारे शीर्ष तक (सिर के ऊपर तक) और हमारे हाथों एंव पैरों में यह व्याप्त रहता है। यह हमारी इंद्रियों को (आंख, नाक, कान, मुख और जीवा) और कर्मेंद्रियां को (हाथ एंव पैर) नियंत्रित करता है संचालित करता है। और हमारा मस्तिष्क भी उदान वायु से संचालित होता है। यह हमारे इस क्षेत्र में बना रहता है।
उदान वायु ग्रीवा द्वारा कार्य करता हुआ वाणी और भोजन के अंतर्ग्रहण को व्यवस्थित करता है। उदान praan ऊर्जा को रीढ़ की हड्डी के निचले सिरे से ऊर्जा को उठाकर मस्तिष्क तक ले जाता है। अगर हमारा उदान वायु प्रभावित होता है तो हमारा मस्तिष्क ठीक प्रकार से कार्य नहीं करेगा। और हमारी इंद्रियां भी गलत तरीके से काम करेंगी गलत विषयों की तरफ जाएंगी असंतुलित हो जाएंगी एवं कर्मेंद्रियां भी प्रभावित होगी तो उदान praan को भी संतुलित रखना अत्यंत आवश्यक है।
5. व्यान।
व्यान प्राण हमारे शरीर में जहां पर भी खाली स्थान है वहां पर स्थित होता है वहां पर कार्य करता है और जितने भी हमारे दूसरे praan है इनको आपस में बांधने का इनको जोड़ने का और इन तक ऊर्जा को पहुंचाने का काम यह व्यान praan करता है।
व्यान वायु पुरे शरीर में व्याप्त रहने के कारण शरीर की गतिविधियों को नियमित, सुचारु और नियंत्रित करता है। भोजन और श्वास से मिली ऊर्जा को यह धमनियों, शिराओं और नाड़ियों द्वारा पूरे शरीर में पहुँचाने का कार्य करता है। व्यान praan प्राण और अपान की क्रिया के लिए आवश्यक हैं। जब हम बहुत ज्यादा थक जाते हैं। और हम को पुनः ऊर्जा की आवश्यकता होती है तो हम थोड़ा आराम करते हैं और कुछ समय आराम करने के बाद पुनः ऊर्जा विकसित हो जाती है और आप उस कार्य को फिर से कर सकते हैं यह सभी व्यान praan के कारण ही यह संभव हो पा रहा है
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उपप्राण
प्राण को पाँच उपप्राण में भी विभक्त किया है। पांच उपप्राण मानव शरीर के महत्त्वपूर्ण कार्यों को विनियमित करते हैं।
- नाग।
- कूर्मा।
- देवदत्त।
- कृकला।
- धनन्जय।
1. नाग।
यह कण्ठ से मुख तक रहता है। डकार (उदगार), हिचकी आदि कार्य इसी उप प्राण के द्वारा होते है। नाग उप-प्राण प्राण और अपान के मध्य उत्पन्न रुकावटों को दूर करता है। और पाचन तन्त्र (digestive system) में गैस बनने से रोकता है। जो कि उदर का भार कम करता है। और समान praan के अवरोधों का हल करना सम्मिलित है।
2. कूर्मा।
यह उप praan आंखों के क्षेत्र में क्रिया करता है। इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक एवं पलकों में है। यह नेत्रा गोलकों को दाएँ -बाएँ, ऊपर-नीचे घुमाने तथा पलकों को खोलने और बंद करने की क्रिया पर नियन्त्रण होता है। आँखों की बाहरी पदार्थों से रक्षा हेतु पलकों की क्रियाएँ करता है। देखने का कार्य कूर्म द्वारा नियंत्रित होता है। आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते है ।
इस उप praan में गड़बड़ी से पलकों का अनियन्त्रित झपकना और खिंचाव पैदा हो जाता है। ॐ उच्चारण की तरह त्राटक के अभ्यास से भी कूर्मा में सन्तुलन और सामर्थ्य प्राप्त होता है, गर्म हथेलियों को आंखों पर रखने और उन आसनों से जिनमें सिर आगे झुकाया जाता है।
3. देवदत्त।
इसका स्थान नासिका से कण्ठ तक रहता है। देवदत्त क्रिया भी समान praan क्रिया जैसी ही है। इसका कार्य छिंक, आलस्य, निद्रा आदि को लाने का है ।
4. कृकला।
इसका स्थान मुख से ह्रदय तक रहता है। यह श्वास-तन्त्र में आये अवरोधों को दूर करता है। नाक एवं गले से बाह्य पदार्थ को रोकने (छींकने और खाँसने) में सहायता करता है। अर्थात् छींकने और खाँसने में सहायता करता है। और छींक को कभी भी दबाना नहीं चाहिए, क्योंकि इससे ग्रीवा रीढ़ में कशेरुका प्रभावित हो सकती है। कहा जाता है कि जो जोर से और दृढ़तापूर्वक छींकता है, वह दीर्घकाल तक जीवित रहता है।
5. धनन्जय।
यह हृदय के निकट स्थित होता है। वेसै सम्पूर्ण शरीर में व्यापक रहता है। और शरीर का पोषण करता है। यह समस्त शरीर को प्रभावित करता है इसका कार्य शरीर के अवयवों को खिचें रखना, माँसपेशियों को सुंदर बनाना आदि है।और विशेष रूप से हृदय की मांसपेशियों को, हृदय के वाल्वों को खोल एवं बन्द करके। arrhythmia and heart attack भी धनन्जय की गम्भीर गड़बड़ी से हो सकते हैं।
सारांश।
इस प्रकार से अगर हम इन विषयों को समझते हैं तो हम देखें कि हमारे शरीर में चाहे कोई निष्कासन (मूत्र, वीर्य और मल) का कार्य हो तो वह अपान ने संचालित किया। और जो अपान का स्थान है वह हमारे नाभि के मूल से लेकर के मूलाधार चक्र तक होता है।
हमारे पाचन तंत्र (Digestive System) से संबंधित जो भी अंग आते हैं। जिसमें हमारा डाइजेस्टिव सिस्टम आता है। उदर क्षेत्र की गतिशील या पाचन क्रिया में सहायता करता है। उदर के अवयवों को ठीक ढंग से काम करने हेतु सुरक्षा प्रदान करता है। इन सभी पर समान ने कार्य किया। अगर समान praan ठीक प्रकार से काम नहीं करेगा तो हमारा पाचन तंत्र (Digestive System) ठीक प्रकार से काम नहीं करेगा और अगर पाचन तंत्र (Digestive System) ठीक नहीं है। तो दिमाग ठीक नहीं रह सकता और दिमाग ठीक नहीं है तो पाचन तंत्र (Digestive System) अर्थात् उदर क्षेत्र पर उसका प्रभाव पड़ना शुरू हो जाएगा।
आगे देखें है कि हमारी इंद्रियों को (आंख, नाक, कान, मुख और जीवा) और कर्मेंद्रियां को (हाथ एंव पैर) नियंत्रित एवं संचालित करने का कार्य उदानप्राण का है। और हमारा मस्तिष्क भी उदान वायु से संचालित होता है। अगर हमारा उदान praan प्रभावित होता है तो हमारा मस्तिष्क ठीक प्रकार से कार्य नहीं करेगा। और जिससे हमारी इंद्रियां एवं कर्मेंद्रियां प्रभावित होती हैं।
इसके पश्चात हमने देखा कि जो भोजन और श्वास से ऊर्जा मिलती है उसको धमनियों, शिराओं और नाड़ियों तक अर्थात् शरीर के हर एक हिस्से तक पहुँचाने का कार्य व्यानप्राण करता है। यह शरीर की गतिविधियों को नियमित, सुचारु और नियंत्रित करता है। और दूसरे प्राणों तक ऊर्जा को पहुंचाने का काम भी यह व्यान praan ही करता है।
अब बात आती है प्राण कि यह जो प्राण है यह सभी प्राणों का राजा कहलाता है। क्योंकि अपान, समान, उदान और व्यान नामक जो अन्य चारों प्राणों का संतुलन बनाता है इनको व्यवस्थित करता है। जैसे राजा अपने अधिकारीयों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है , वैसे ही यह भी अन्य चार प्राणों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है। अगर आप अपनी प्राण ऊर्जा को बढ़ाना चाहते हैं तो इस प्राण नामक प्राण पर ध्यान देना होगा।
इस प्रकार से अगर हम देखते हैं तो praan हमारे शरीर के हर एक छोटे से छोटे कार्य को करता है शरीर के हर एक छोटे से छोटे कार्य को संतुलित, व्यवस्थित, संचालित और नियंत्रित कर रहा है। इसके विषय में आगे हम देखेंगे कि आसनों, क्रियाओं, मुद्राओं और प्राणायाम के माध्यम से कैसे प्राणों को नियंत्रित कर सकते हैं। और प्राणायाम के माध्यम से प्राणों को कैसे विकसित, विस्तृत किया जा सकता है। यह बहुत अधिक विकसित एवं विस्तृत विषय है और हमे अपेक्षा है कि आपको इसको ठीक से समझेंगे और इससे लाभ भी प्राप्त करेंगे। और हम अपेक्षा करते हैं कि इस लेख के माध्यम से आपको पंचप्राण के विषय में प्राथमिक जानकारी प्राप्त हो गई होंगी। धन्यवाद।