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अष्टांग योग क्या है? अष्टांग योग के बारे में सम्पूर्ण जानकारी।1

अष्टांग योग

योग का अर्थ आसन व प्राणायाम मात्र नहीं है। आसन व प्राणायाम तो योग का एक भाग है। योग का स्वरूप तो बहुत विस्तृत है। किंतु वर्तमान में लोगों ने योग को केवल आसन व प्राणायाम से जोड़ दिया है। वास्तव में जो योगी है वह केवल शरीर पर ध्यान नहीं देते अपितु अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करके ईश्वर के साथ जोड़ने का प्रयास करते हैं। और ईश्वर में ध्यान लगाते हैं।

योग का प्रथम अनुभव शरीर से ही संबंधित है। इसका प्रथम कार्य शरीर को स्वस्थ बनाना है। योग आरंभ करने के कुछ दिन पश्चात व्यक्ति अपने आप को रोगमुक्त और ऊर्जावान अनुभव करने लगता है। इसके पश्चात योग के माध्यम से मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है। अर्थात् व्यक्ति की भावनाओं और विचारों का शुद्धि होना आरंभ होता है। योग के इस अनुभव से मस्तिक से अवसाद, चिंता, नकारात्मक विचार आदि पर नियंत्रण करना संभव हो जाता है।

अष्टांग योग

महर्षि पतंजलि ने योग के आठ प्रमुख अंग बताए हैं। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि ईश्वर और अपने इस जन्म के सत्य को जानने के लिए आरंभ शरीर से ही करना होगा। शरीर बदलेगा तो चित बदलेगा चित बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी और चित पूर्ण रूप से सशक्त होता है। तभी व्यक्ति की आत्मा परमात्मा के साथ योग करने में सक्षम होती है।

वर्तमान में साधारण व्यक्ति योग के केवल तीन ही अंगों का पालन करते हैं आसन, प्राणायाम, ध्यान इनमें से ध्यान करने वाले व्यक्तियों की संख्या बहुत कम है। सामान्य लोग योग के आठों अंगो को योग प्रक्रिया में शामिल नहीं करते हैं। जिस कारण योग का संपूर्ण लाभ नहीं मिलता वास्तव में जो योगी है। वह योग के आठों अंगो का पालन करके स्वयं को ईश्वर से जोड़ते हैं।

यदि हम गहराई से देखें तो योग के यह आठ अंग कोई सामान्य कार्य नहीं करते, यह तो हमारे महान ऋषि-मुनियों की महान सोच है, उनकी बड़ी अनुकंपा है जो कि उन्होंने इसे अलग-अलग बांटकर और फिर एक सूत्र में पिरोकर हमें अवगत करा दिया क्योंकि सभी आठों अंगों के अलग-अलग कार्य हैं। जो कि हमारे हाथों और पैरों के नाखून से लेकर हमें मोक्ष तक का रास्ता बताते हैं। यह हमारे लिए और इस विश्व के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है, यह महान आत्माओं द्वारा हमें दिया गया एक बहुत बड़ा उपहार है। क्यों न हम इसे आत्मसात करें और उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करें।

महर्षि पतंजलि ने योग के आठ प्रमुख अंग बताए हैं। जिसे अष्टांग योग कहते है। (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) हैं।

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग के आठ अंग हैं। इन आठ अंगों दो भागों में बांटा गया है जिनकी दो अलग-अलग भूमिकाएँ हैं। 

  1. बहिरंग 
  2. अंतरंग

यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार यह पाँच अंग बहिरंग कहलाते हैं, क्योंकि इनकी विशेषता बाहर की क्रियाओं से ही सम्बंधित है। शेष तीन अंग अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि अंतरंग कहलाते हैं। इसका संबंध केवल अंतःकरण से होने के कारण इनको अंतरंग कहते हैं। चलिए अब इन आठ अंगों की चर्चा करते है।

अष्टांग योग का प्रथम अंग “यम”

सामाजिक व्यवहार का पालन करने को यम कहते हैं। जैसे लोभ ना करना, किसी को प्रताड़ित ना करना, चोरी-डकैती व नशा ना करना, बिना कुछ गलत किया सत्य के आधार पर जीवन का निर्वाह करना इस प्रकार के जीवन की शपथ लेना अर्थात् आत्म नियंत्रण यम का भाग है। यम हमें क्रमशः सामाजिक एवं धार्मिक रूप से जीना सिखाता है जिस कारण हमारी सामाजिक नैतिक मूल्य की वृद्धि होती है। इसके पांच सिद्धान्त है। जैन धर्म में इन पाँच यमों को पाँच महाव्रत का नाम दिया गया है। उनको धर्म की आधार-शिला माना गया है।

 अहिंसा। (हिंसा न करें)

अहिंसा का अर्थ है किसी भी जीवित प्राणी को विचार, शब्द या व्यवहार से तकलीफ या हानि नहीं पहुंचाना।

जब योगी का अहिंसा भाव पूर्णतः दृढ़ स्थिर हो जाता है तब उसके आसपास हिंसक जीव भी अपना वैर-भाव छोड़ देते हैं। किसी प्राणी को मन, वाणी और शारीरिक बल द्वारा कभी भी किसी भी प्रकार से किचिंत् मात्र भी नुकसान न पहुँचाना ही अहिंसा है। जब योगी की अहिंसा की भावना पूर्णतया दृढ़ हो जाती है तो उसके आसपास हिंसक जीव भी अपना वैर त्याग देते हैं। किसी भी जीवित प्राणी को मन, वाणी या शरीर से रत्ती भर भी नुकसान न पहुँचाना ही अहिंसा है। धर्म शास्त्रों में लिखा है कि सब जीवों के साथ संयम से व्यवहार रखना अहिंसा है। और, कहा भी है कि अहिंसा परमोधर्मः एवं जियो और जीने दो।

सत्य। 

 मनुष्य को सदैव आलस्य से मुक्त और सावधान रहकर असत्य का त्याग कर हितकारी सत्य वचन ही बोलने चाहिए। एक बार  सत्य दृढ़ता से स्थापित हो पर क्रिया फल के आश्रय का भाव आ जाता है। योगी को आशीर्वाद, वरदान अथवा शाप देने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। 

अस्तेय।

अस्तेय का अर्थ है कि आप कभी भी बिना अनुमति के ऐसी वस्तु न लें जो किसी अन्य से संबंधित है। इसका अर्थ,  केवल दुसरे कि भौतिक वस्तुएं ही नहीं मानसिक संपति जैसे उसकी आशा, प्रसन्नता का अपहरण करना भी चुराना है। प्रकृति का शोषण और पर्यावरण को हानि पहुंचाना भी इस श्रेणी में आते हैं। अर्थात् चोरी न करना।

ब्रह्मचर्य।

ब्रह्मचर्य धर्म का मूल है। इसलिए निग्रंथ मुनि ब्रह्मचर्य के पालन में दृढ़ बने रहते हैं। जब कोई साधक पूरी तरह से ब्रह्मचर्य का पालन करता है तो उसके शरीर, मन और आत्मा में अपार शक्ति का उदय होता है।

ब्रह्मचर्य का अनुवाद प्राय: यौन क्रियाओं के रूप में किया जाता है। किन्तु ब्रह्मचर्य का अर्थ है कि हमारे विचार सदैव ईश्वर की ओर ही प्रेरित रहें। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम इस विश्व में अपने कर्तव्यों से पीछे हटे। इसके विपरीत हम इन उत्तरदायित्वों को अत्यधिक सावधानी के साथ निभाते हुए, किन्तु सदैव इस बात का ध्यान रखते हुए कि “मैं कर्ता नहीं हूँ, ईश्वर ही कर्ता है।”

अपरिग्रह

अपरिग्रह अर्थात् परिग्रह का प्रयास न करना अर्थात् आवश्यकता से अधिक वस्तु का संग्रह न करना ही अपरिग्रह है। निग्रंथ मुनि किसी प्रकार का परिग्रह नहीं रखते, अपरिग्रही व्यक्ति को योग साधना और धार्मिक क्रिया-कलाप से उत्तम फल की प्राप्ति होती है।

अष्टांग योग का दुसरा अंग “नियम”

नियम का संबंध व्यक्ति के अनुशासन (आचरण) से है। चरित्र, आत्म, अनुशासन आदि आदर्श व्यक्ति के अभिन्न अंग है। प्रत्येक साधक के जीवन में नियम, अनुशासन का होना बहुत आवश्यक है। प्रत्येक साधक के जीवन में नियम अवश्य होने चाहिए। मनुष्य चाहे सांसारिक सुख चाहता हो या आध्यात्मिक सुख प्राप्त करना चाहता हो, उसके जीवन में उत्तम नियम अवश्य होने चाहिए। 

महर्षि पतंजलि के अनुसार पांच नियम इस प्रकार हैं।

शौच।

सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है आन्तरिक शुद्धता। हमारी वेषभूषा, हमारा शरीर उन्हीं के समान हमारे विचार और भावनाएं भी शुद्ध होने चाहिये।

शौच के पालने वाले को अपने अंगों से वैराग्य और दूसरों से संसर्ग करने की इच्छा का अभाव होता है। अर्थात् अपने शरीर में और दूसरों के शरीर में आसक्ति का भाव नहीं रहता। अर्थात् इसे न तो अपने शरीर के प्रति और न ही दूसरों के शरीर के प्रति लगाव की भावना होती है। जप-तप आदि अन्य किसी साधना द्वारा आंतरिक शौच के लिए अभ्यास करने से मनुष्य का अन्तःकरण निर्मल और स्वच्छ हो जाता है। मन की व्याकुलता दूर हो जाती है और सदैव प्रसन्नता का भाव बना रहता है। विकर्षण का नाश होकर एकाग्रता आ जाती है और सभी इन्द्रियाँ मन के वश में हो जाती हैं। अतः उसमें आत्मदर्शन की योग्यता आ जाती है।

सन्तोष।

सबसे महानतम धन है तो वह है मन का संतोष है। संतोष से बढ़कर कोई दूसरा सुख नहीं भारतीय कवि तुलसीदास जी ने कहा है। 

गोधन, गजधन, बाजधन और रत्न धन खान। 

जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान ।।

अर्थात् गो-रूपी धन, हाथी-रूपी धन, घोड़े-रूपी धन तो हैं ही, और भी तरह-तरह के रतनों, धनों की खानें अपने स्वामित्व में रख सकते हैं, अर्थात् आप संसार के सारे धन के स्वामी बन सकते हो लेकिन जब तक आदमी का आन्तरिक असंतोष अर्थात् मन नहीं भरता तो संसार का सारा धन भी उसके लिए कम है। हाँ, जब आदमी के पास सन्तोष-रूपी धन आ जाता है, तब बाकी सभी प्रकार के धन धूल या मिट्टी के समान हो जाया करते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सन्तोष-रूपी धन पाकर ही आदमी का मन भरा करता है।

किसी ने कहा है कि संतोषामृत पिया करो – अर्थात् संतोष रूपी अमृत का पान करो (धारण करो)। साधक को जब संतोष होता है तो तृष्णा का नाश होता है, चाहत का अभाव होता है।

तप।

तप के प्रभाव से अपवित्रता का नाश होता है। शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि होती है। तप कई प्रकार के होते हैं। परंतु वह तप जो व्यक्ति को अपने स्वानुभूति, अपने स्वरूप के दर्शन कराए जिससे अंतरंग और बहिरंग दोनों शुद्ध होकर उत्थान को प्राप्त हो जाएँ, तप कहलाता है।

जीवन में जब हम प्रतिकूलता और बाधाओं से घिरे होते हैं, तब हमें हताश कभी भी नहीं होना चाहिये। इसके स्थान पर हमें अपने चुने हुए मार्ग पर दृढ़ निश्चय के साथ बढ़ते रहना चाहिये। आत्म-अनुशासन, धैर्य और दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ अभ्यास निरंतर जारी रखना यही सफलता की कुंजी है।

स्वाध्याय।

स्वाध्याय से इष्टदेव का दर्शन होता है। स्व यानी स्वयं अर्थात् आत्मा (मैं) का अध्ययन करना, चिंतन एवं मनन करना ही स्वाध्याय है। जैन धर्म में स्वाध्यायः परम तपः माना गया है। पवित्र ग्रन्थों, शास्त्रों का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है।

योग से अपेक्षा रखने वालो हमें अपने परम्परागत योग दर्शन के पवित्र ग्रन्थों अर्थात् भगवद् गीता, उपनिषद्, पातंजलि के योग सूत्रों आदि से भी परिचित हो जाना चाहिये। ये महाग्रन्थ हमें योग मार्ग पर जाने के लिए अति मूल्यवान ज्ञान और सहायता प्रदान करते हैं।

ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर की शरण में जाना। 

ईश्वर-प्रणिधान से समाधि की सिद्धि होती है। जब कोई साधक अपनी इच्छाएँ, कर्म और वह सब कुछ जो उसके अहंकार को पुष्ट करता है, ईश्वर को समर्पित कर देता है तो यह ईश्वर-प्रणिधान है। जब कोई व्यक्ति बिना किसी भाव के स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है तो वह समाधि की चरम अवस्था तक पहुंच जाता है। जब वह जड़ और चेतन को विवेक की दृष्टि से अलग-अलग देखता है तब उसे सम्यक् दृष्टि और सम्यक दर्शन प्राप्त हो जाते है और उसे ईश्वर का साक्षात्कार होता है। यही ईश्वर- प्रणिधान है।

अष्टांग योग का तीसरा अंग “आसन”

योग का तीसरा है अंग आसन। महर्षि पतंजलि के अनुसार “स्थिरसुखमासनम् ।” सुखपूर्वक स्थिर बैठने का नाम आसन है।

शरीर के अंगों को उचित रूप से संचालित रखने के लिए जो योगिक क्रियाएं की जाती है वह आसन का भाग है। आसन हमें जीवन के अंतिम क्षणों तक निरोग रखता है। हमारे शरीर का विकास उत्तरोत्तर करता है।

वह क्रिया जिसमें व्यक्ति स्थिरतापूर्वक (बिना किसी हलचल के) निराकुलता लिए लंबे समय तक आराम से बैठ सकता है आसन कहलाता है। मानसिक संतुलन स्थिर और सुखपूर्वक शारीरिक स्थिति से आता है। मन की चंचलता समाप्त हो जाती है। एक योगी आसन के अभ्यास के माध्यम से शरीर और मन पर विजय प्राप्त करके अपने जीवन को धन्य बनाता है। साधक जानता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन और मस्तिष्क का विकास होता है। आसनों के निरंतर अभ्यास से शारीरिक असमर्थता और मानसिक बाधाओं से व्यक्ति स्वयं को मुक्त कर हल्का महसूस करता है। 

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अष्टांग योग का चोथा अंग “प्राणायाम” 

प्राणायाम हमारे प्राण को एक नया आयाम देता है। प्राणायाम हमें श्वास लेने की कला सिखाता है और हमारे प्राण का उत्थान व विकास करता है।

रेचक, पूरक और कुंभक के माध्यम से बाहरी और आंतरिक दोनों स्थानों में श्वसन गति के प्रवाह को रोकना प्राणायाम कहलाता है। कहा गया है कि योग आसन के अभ्यास के बाद प्राणायाम करना चाहिए। इससे यह प्रतीत होता है कि जो लोग योग आसन का अभ्यास किए बिना प्राणायाम करते हैं, वे गलत कर रहे हैं। प्राणायाम का अभ्यास करते समय आसन का स्थिर होना आवश्यक है।

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अष्टांग योग का पांचवां अंग “प्रत्याहार” 

प्रत्याहार हमें हमारी इंद्रियों से विजय दिलाता है। यह स्वयं से स्वयं को जीतने की कला सिखाता है यह हमारा मानसिक विकास करता है।

प्रत्याहार का अर्थ है संसार में किसी भी वस्तु या मनुष्य से मोह या आसक्ति का ना होना अपने मन और इन्द्रियों को वश में करना अपने मन और इन्द्रियों को अपनी इच्छानुसार संचालित करना ।

सूत्रकार कहते हैं कि प्राणायाम के अभ्यास से पाँचों इन्द्रियों के बाह्य विषय और मन धीरे-धीरे निर्मलता को प्राप्त होते जाते हैं। साधक का ध्यान अंतरोन्मुख हो जाता है। विषय-कषाय सब विलीन हो जाते हैं। इसी का नाम प्रत्याहार है। यही योगी की पाँचवीं अवस्था है। वह अंतर-आत्मा के ज्ञानदीप से बाहर के इन्द्रिय-जनित विषय-कषाय को जलाकर सम्यक्-दृष्टि हो जाता है। 

गोरक्ष पद्धति में सूत्रकारों का कहना है कि पाँच इन्द्रियाँ-घ्राण, चक्षु, जिह्वा, कर्ण और स्पर्शन, साधनों द्वारा धीरे-धीरे  इन्द्रियों को उनके विषय-कषाय से विमुख करना प्रत्याहार कहलाता है। आसन और प्राणायाम को सिद्ध कर लेने के बाद मानसिक विषय-विकार को हटाकर अपने स्वरूप में स्थित होना प्रत्याहार कहलाता है। एक योगि अपनी इन्द्रियों को विषय-कषाय से हटाकर उनकी वृत्तियों को आत्मा में अनुरक्त करें। विषय-सुखों में आसक्त होकर यह जीवन अपना बड़ा भारी अहित कर रहा है। अतः इन सबका त्याग कर व्यक्ति को अपना आत्मकल्याण करना चाहिए, यही प्रत्याहार की सार्थकता है।

अब तक हमने यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार इन पाँच बहिरंग साधनों का वर्णन किया है। अब धारणा, ध्यान और समाधि शेष तीन अंतरंग साधनों का वर्णन करेंगे। जब शरीर को आसन के माध्यम से व्यवस्थित किया जाता है, जब मन को प्राणायाम की अग्नि से शुद्ध किया जाता है और जब प्रत्याहार के माध्यम से इंद्रियों को वश में किया जाता है, तो साधक अष्टांग योग के छठे चरण, धारणा को प्राप्त करता है।

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अष्टांग योग का छठवां अंग “धारणा” 

मन की एकाग्रता को ही धारणा कहते हैं। एकाग्रता मनुष्य को सफलता/लक्ष्य की ओर अग्रसर करती है। योग में ऐसी कई क्रियाएं व आसन है। जिससे हम अपनी एकाग्रता में वृद्धि कर सकते हैं। धारणा अंग हमारे मन को एकाग्र करता है। हमारा बौद्धिक विकास करता है।

अष्टांग योग का सातवां अंग “ध्यान” 

“मन वृत्ति का एक सा बना रहना ध्यान है।” धारणा में मन जिस एकमात्र भाव से लक्ष्य पर केन्द्रित होता है, जब वह भाव ऐसे एक समान प्रवाह में उत्पन्न होता रहता है, कोई अन्य भाव बीच में नहीं आता है तो उसे ध्यान कहते हैं। अनेक आचार्यों ने अनेक प्रकार से व्याख्या की है

वाचस्पति मिश्र ने कहा है कि :- “मन का एकाग्र और एकतान हो जाना ध्यान है।”

ध्यान हमें कई उपलब्धियाँ प्रदान कराता है। हमें जीवन के लगभग सभी कार्यक्षेत्र के लिए ध्यान के सोपान की आवश्यकता पड़ती है। ध्यान द्वारा हम आत्मज्ञान तक प्राप्त कर सकते हैं।

श्री विश्वनाथ के अनुसार :- “प्रणिधानम चित्त एकाग्रमिदम।”

अर्थात् मन प्राणिधान में एकाग्र हो जाता है।

ध्यान मन की शांति (चैनी की अनुपस्थिति) की स्थिति है जिसमें मन की वृत्तियाँ नियंत्रित होती हैं। जहां राग और द्वेष का अभाव होता है, वहां रजोगुण और तमोगुण लगभग शून्य हो जाते हैं और मन की उद्विग्न, व्याकुल और मूर्खतापूर्ण स्थिति लुप्त हो जाती है। मन की चौथी अवस्था एकाग्रता की अवस्था है जहां अच्छे गुणों की प्रबलता होने पर मानसिक शक्तियां केवल एक विषय या एक स्थान पर केंद्रित होती हैं। मन की पांचवी अवस्था है निरुद्धावस्था। जहां मन, बुद्धि, अहंकार, राग और द्वेष में कोई अंतर नहीं है और सभी आंतरिक शक्तियां भगवान की पूजा या सेवा में समर्पित हैं। यहां मैं और मेरा का भाव दूर हो जाता है और ध्यान की स्थिति प्राप्त होती है।

अष्टांग योग का आठवां अंग “समाधि” 

जब ध्यान में केवल लक्ष्य का ही अनुभव हो और स्वरूप शून्य हो जाए तो उसे समाधिस्थ अवस्था कहते हैं। ध्यान की अंतिम अवस्था का नाम समाधि है जो स्थिर मन की सर्वोत्तम अवस्था है। आत्म-विस्मृति की तरह ध्यान ही समाधि है। ध्यान करते समय जब साधक आत्म-विस्मृत हो जाता है, जब केवल लक्ष्य-सम्बन्धी सत्ता (अस्तित्व) की ही उपलब्धि होती रहती है और स्वयं का अस्तित्व भूल जाता है। जब लक्ष्य से अपना मन नहीं भटकता, लक्ष्य पर मन की स्थिरता ही समाधि है। समाधि के बिना आत्मबोध (आत्म-साक्षात्कार) की स्थिति नहीं होती। समाधि साधना की खोज का अंत है।

जब ध्यान पर नियंत्रण हो जाता है तब व्यक्ति समाधि की अवस्था में पहुंचता है अर्थात् परम ब्रह्म में लीन हो जाता है समाधि की अवस्था में व्यक्ति परम आनंद को प्राप्त करता है। समाधि वह अवस्था है जहां ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक हो जाते हैं। ज्ञाता (अभ्यास करने वाला व्यक्ति), ज्ञान (ईश्वर क्या है) और ज्ञेय (अर्थात् ईश्वर) एक हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि व्यक्ति दिव्य चेतना के साथ समाहित (जुड़) हो जाता है। जो समाधि प्राप्त कर लेते हैं वे एक स्वर्गिक, उज्ज्वल प्रकाश देखते हैं, स्वर्गिक ध्वनि सुनते हैं और अपने ही में एक अनन्त विस्तार देखते हैं।

समाधि द्वारा हम अपने अवचेतन मस्तिष्क का विकास कर परम आनंद प्राप्त कर सकते हैं जो कि जीवन का अंतिम लक्ष्य होता है।

इस प्रकार हम अष्टांग योग द्वारा अपने जीवन के समस्त क्षेत्रों का विकास कर पूरे जीवन को क्रमबद्ध तरीके से जीने की कला सीख सकते हैं

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