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प्राणायाम क्या है? परिभाषा, लाभ, नियम, प्रकार और सावधानियां | 1

प्राणायाम

भारतीयों के द्वारा प्राणायाम का अभ्यास हजारों वर्षों से किया जा रहा है। पहले प्राचीन महान योग गुरूओं के द्वारा यह ज्ञान मौखिक रूप में संचालित हुआ। प्राणायाम हठयोग, पतंजलि योग सूत्र  के सबसे महत्त्वपूर्ण अभ्यास में से एक है।

प्राणायाम हमारे प्राण को एक नया आयाम देता है। प्राणायाम हमें श्वास लेने की कला सिखाता है और हमारे प्राण का उत्थान व विकास करता है।

अष्टांग योग में प्राणायाम का एक विशेष स्थान और महत्त्व है। अनेक योग गुरु एवं योगाचार्यों ने प्राणायाम को विभिन्न तरीकों से परिभाषित किया लेकिन लगभग सभी ने एक जैसे ही प्रकार के अर्थ व्यक्त किए हैं। अष्टांगयोग का चतुर्थ पाद में लिखा है कि “प्राणास्य आयामः इति प्राणायामः” अर्थात प्राण का विस्तार ही प्राणायाम है। प्राणायाम का प्रतिदिन अभ्यास करने से प्राणशक्ति में अत्यधिक वृद्धि होती है।

महर्षि पतंजलि के अनुसार :-

तस्मिन्सति श्वास प्रश्वास योर्गति विच्छेदः प्राणायामः ।।

अर्थ :- आसन की सिद्धि होने पर श्वास प्रश्वास का जो गति विच्छेद किया जाता है अर्थात् जो उदयाभाव है, वही प्राणायाम है। अर्थात् आसन की सिद्धि के बाद पूरक अर्थात प्राणवायु को अन्दर लेने व रेचक अर्थात प्राणवायु को बाहर छोड़ने तथा प्राण वायु को अपनी सुविधानुसार रोक देना या स्थिर कर देना, वही प्राणायाम है।

रेचक, पूरक और कुंभक के माध्यम से बाहरी और आंतरिक दोनों स्थानों में श्वसन गति के प्रवाह को रोकना प्राणायाम कहलाता है। कहा गया है कि योग आसन के अभ्यास के बाद प्राणायाम करना चाहिए। इससे यह प्रतीत होता है कि जो लोग योग आसन का अभ्यास किए बिना प्राणायाम करते हैं, वे गलत कर रहे हैं। प्राणायाम का अभ्यास करते समय आसन का स्थिर होना आवश्यक है।

प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ।

प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है प्राण+आयाम। 

प्राण :- प्राण का अर्थ है ‘जीवन शक्ति’,’सांस’। प्राण एक ऐसी ऊर्जा है। जो किसी न किसी रूप व स्तर पर सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है। प्राण ऊर्जा सभी जीव-जंतुओं में सूक्ष्म और सशक्त रूप से पाई जाती है। प्राण में निहित है ऊर्जा, ओज, तेज, वीर्य (शक्ति) और जीवनदायिनी शक्ति। 

आयाम :- आयाम के कई अलग-अलग अर्थ हैं जिनमें विस्तार, फैलाव, विनियमन, लंबाई, उठना अवरोध या नियंत्रण शामिल है। अतः प्राणायाम का अर्थ हुआ प्राण अर्थात श्वसन (जीवन शक्ति) का विस्तार, दीर्धीकरण और फिर उसका नियंत्रण।

प्राणायाम का विषय विशाल है। इसमें असीमित संभावनाएँ छिपी हुई हैं। इस में शरीर और मस्तिष्क के मध्य भीतरी सम्बंध की खोज की जाती है।

प्राणायाम जितना सरल और आसान दिखता होता है, उतना है नहीं। जब कोई व्यक्ति प्राणायाम करने का प्रयास करता है तो उसे लगने लगता है कि यह कोई हँसी-मज़ाक का विशेष नहीं है, बल्कि एक जटिल परन्तु सार्थक कला है। प्राणायाम कोई काल्पनिक क्रिया नहीं है अपितु तत्काल अर्थात्  बहुत ही शीघ्र प्रभावशाली है। प्राणायाम की कई क्रियाएँ तो सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती चली जाती हैं।

आज के समयकाल का व्यक्ति कुछ ज़्यादा ही तनावपूर्ण हो गया है। ऐसा मानों की संतुलित एवं शांतिमय जीवन जीना बहुत कठिन हो गया है। कुछ व्यक्ति मानसिक समस्याओं से पीड़ित हैं तो कुछ सामाजिक एवं व्यावहारिक कारणों से। इन सभी समस्याओं से खुद को शांत व स्थिर बनाए रखने के लिए व्यक्ति तरह-तरह के नशीले पदार्थो का सेवन करता है किंतु सत्य तो यह है कि इन सभी मादक द्रव्यों का सेवन करने से शांति नहीं मिलती बल्कि यह जीवन को नर्क बना लेता है। संभवतया धूम्रपान और नशीले पदार्थो का सेवन करने से कुछ समय के लिए दुःख भूल जाएँ परंतु यह समस्या का हल नहीं है।

जैसे ही नशीले पदार्थों का असर कम होता वे सभी शारीरिक और मानसिक विकार तो पुनः लौटकर आ जाते हैं। हमने प्रयोगात्मक रूप से देखा है कि जीवन में प्राणायाम जैसा सशक्त माध्यम अपनाने से हम हमारे जीवन को बेहतर बना सकते हैं हम कई समस्याओं को हल कर सकते हैं।

प्राण

प्राण का अर्थ।

प्राण का अर्थ है ‘जीवन शक्ति’,’सांस’। प्राण एक ऐसी ऊर्जा है। जो किसी न किसी रूप व स्तर पर सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है। प्राण ऊर्जा सभी जीव-जंतुओं में सूक्ष्म और सशक्त रूप से पाई जाती है। प्राण में निहित है ऊर्जा, ओज, तेज, वीर्य (शक्ति) और जीवनदायिनी शक्ति।

प्राण क्या है।

प्राण को अच्छे प्रकार से समझ लेना बहुत जरूरी है अगर हम प्राण को ठीक प्रकार से नहीं समझेंगे तो हम प्राणायाम से भी पूर्णतः लाभ प्राप्त नहीं कर सकते और इस बात को भी समझ लेना बहुत ज्यादा जरूरी है कि प्राण जिसको हम अनुभव करते हैं जो नासिका के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश करता है मात्र यही तक इसकी भूमिका नहीं है प्राण का जो विस्तार है वह बहुत अधिक है

उपनिषद, ग्रंथ  आदि में भी प्राण ऊर्जा के विषय में विस्तार से बताया गया है। प्राण ऊर्जा को हम कुछ इस प्रकार से समझ सकते हैं कि एक ब्रह्मांडी ऊर्जा है। जो कि हमारे चारों ओर फैली हुई है। हम इस ऊर्जा को ग्रहण करते हैं और इसी से हमारे शरीर का हर एक अंग और शरीर की हर एक क्रिया चलती है। यहां तक कि हमारे सोचने-समझने की शक्ति हमारे विचार भी इस प्राण ऊर्जा के आधार पर ही चलते हैं। और ऐसा मानों की हमारे शरीर और मन की प्रत्येक क्रिया के साथ प्राण जुड़ा हुआ है।

अगर प्राणों में असंतुलन हो जाता है अगर हमें पर्याप्त मात्रा में प्राण ऊर्जा नहीं मिलती है या हम पर्याप्त मात्रा में प्राण ऊर्जा को ग्रहण नहीं करते हैं तो इसका स्पष्ट प्रभाव हमें हमारे शारीरिक और मानसिक स्थिति पर देखने को मिलेगा। हम अपने विचारों को अपने सोचने-समझने की क्षमता को खोने लगते हैं। हमारे शरीर से लेकर के हमारे मन तक सभी जो एक प्रकल्प है वह प्रभावित हो जाता है और हम कहीं ना कहीं अपनी गुणवत्ता और अपने स्वास्थ्य को भी खोने लगते हैं।

हमारे चारों ओर पर्याप्त मात्रा में प्राण ऊर्जा उपलब्ध है इस प्राण ऊर्जा को हम कितना ग्रहण कर सकते हैं। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है अगर हम इस प्राण ऊर्जा को अधिक मात्रा में ग्रहण कर लेते हैं तो हमारे शरीर के अंदर कार्य करने वाले जो पांच प्राण है। (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) वह विकसित हो जाते है और प्राण ऊर्जा का स्तर हमारे अंदर बढ़ना शुरू हो जाता है। जितना ज़्यादा प्राण ऊर्जा का स्तर बढ़ेगा हमारे शरीर की क्रिया क्षमता भी उतनी ही बढ़ती जाएगी हम ज्यादा आत्मविश्वास से युक्त हो जाएंगे हम में सोचने और समझने की क्षमता बेहतर होगी। हमारे विचारों में सकारात्मकता आएंगी।

इसको एक उदाहरण के माध्यम से समझने की कोशिश करें जैसे कि हमने देखा होगा दो व्यक्ति जो एक जैसी परिस्थिति से गुजरते हैं लेकिन उस परिस्थिति में एक व्यक्ति टूट जाता है और एक सक्षम होकर के खड़ा रहता है इसका कारण यही है कि  कि जो सक्षम है उसके अंदर प्राण ऊर्जा का विकास हो चुका है उसके अंदर अधिक प्राण ऊर्जा है।

इसको हम एक और उदाहरण के माध्यम से समझने की कोशिश करते जैसे जब घरों तक आने वाली बिजली का वोल्टेज कम हो जाता है तो जो हमारे घरों में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे पंखे, कूलर हैं वो धीरे-धीरे चलने शुरू हो जाएंगे और जैसे-जैसे बिजली का वोल्टेज बढ़ेगा इलेक्ट्रिसिटी की सप्लाई बढ़ेगी उतना ही इलेक्ट्रॉनिक उपकरण तेज और बेहतर तरीके से चलने लगेंगे।

 इसी प्रकार अगर हमारे शरीर में पर्याप्त मात्रा में प्राण ऊर्जा पहुंचती है तो हमारे शरीर का हर एक अंग और शरीर की एक-एक कोशिका बेहतर तरीके से काम करना शुरू कर देती है और जब हमारे शरीर की कोशिकाएं स्वस्थ एवं विकसित होती है तो यह हमारे शरीर की क्षमता को बढ़ती है हमको ऊर्जावान और युवा बनाती है।

अर्थात् हमारे अन्दर जितनी अधिक प्राण ऊर्जा होगी। हमारा स्वास्थ्य उतना ही अधिक स्वस्थ होगा। हमारे अन्दर सोचते-समझने की क्षमता अच्छी होगी। विचारों में सकारात्मकता आएंगी। मस्तिष्क सक्षम, बेहतर और शांत हो सकेगा। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होगा।

प्राण ऊर्जा के विषय में हठयोग का यह मूल सिद्धांत है हठयोग इसी के ऊपर टिका हुआ है अगर प्राण ऊर्जा का प्रयोग आप नहीं कर रहे हैं तो आप हट योग को भी ठीक से नहीं समझ रहे हैं हमारे शरीर में यह प्राण किस तरीके से कार्य करते हैं और कौन सा प्राण हमारे शरीर के किस हिस्से को प्रभावित करता है और अगर हम प्राणों का संतुलन कर लेते हैं प्राण ऊर्जा को बढ़ा लेते हैं तो कौन-कौन से फायदे हमको मिल सकते हैं।

चरक संहिता सूत्रस्थान 12/7 में महर्षि चरक ने प्राण को पाँच भागों में विभक्त किया है, और वशिष्ठ संहिता में प्राण 70 प्रकार के बताये गये हैं।

प्राण के प्रकार।

महर्षि चरक ने प्राण को पाँच भागों में विभक्त किया है। और अधिक जाने यहां क्लिक करें।

 

शरीर के प्रकार।

 

शरीर को तीन भागों में विभक्त किया गया है। वेदांत के अनुसार भी तीन प्रकार या रूप (स्थूल शरीर,सूक्ष्म शरीर,कारण शरीर) का होता है। जो कि आत्मा को माण्डलिक रूप से घेरे रहता है। इन तीनों रूपों के पाँच अंतर्भेदी और अंतःआश्रित कोष होते हैं।

  1. स्थूल शरीर।
  2. सूक्ष्म शरीर।
  3. कारण शरीर।

1. स्थूल शरीर।

स्थूल शरीर जन्म के बाद जो शरीर सामने दिखाई देता है, वह स्थूल शरीर होता है। शारीरिक अन्नमय कोष कहलाता है तथा यह आकार मोटा होता है। इससे सांसारिक कार्य किये जाते है, इस शरीर को सांसारिक दुखों से गुजरना पड़ता है। 

स्थूल शरीर वह भौतिक शरीर है जिसे हम अपनी आँखों से देख और छू सकते हैं। भौतिक शरीर का मुख्य कार्य जीवन की विभिन्न गतिविधियों जैसे खाना, पीना, सोना, चलना और अन्य शारीरिक गतिविधियों में भाग लेना है। स्थूल शरीर सप्तधातु से बना है जिसमें रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र शामिल हैं। हम जो भोजन करते हैं उससे रस बनता है और उस रस से रक्त बनता है, उस रस से मांस बनता है, मांस से मेद बनता है, मेद से हड्डी बनती है, हड्डी से मज्जा बनती है, मज्जा से शुक्र बनता है।

यह स्थूल शरीर पांच महाभूतों – पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश से बना है। ये पांच महाभूत भौतिक शरीर की विविधता और संरचना को प्रकट करते हैं।

2. सूक्ष्म शरीर।

सूक्ष्म शरीर हमारे भौतिक शरीर का अदृश्य हिस्सा है। इसका निर्माण मनोमय, प्राणमय और विज्ञानमय कोष करते हैं। और यह हमारी भावनाओं, विचारों और प्राणिक ऊर्जा से संबंधित है। जबकि हमारा स्थूल शरीर (भौतिक शरीर) मृत्यु के बाद नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर मृत्यु के बाद भी बना रहता है। जिसे हम सामान्य भाषा में आत्मा कहते है। आध्यात्मिक उन्नति में सूक्ष्म शरीर को समझना महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमें जीवन और माया की गहराई को समझने में मदद करता है। यदि हम सूक्ष्म शरीर को सही ढंग से पहचान लें और इस पर नियंत्रण कर लें तो हम आध्यात्मिक रूप से प्रगति कर सकते है, उन्नत हो सकते हैं।

3. कारण शरीर।

आनंदमय कोष कहलाता है और इसके कारण साधक को चेतना का अनुभव होता है। व्यक्ति के तीन शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म और कारण) में से सबसे सूक्ष्म और अदृश्य शरीर माना जाता है, क्योंकि कारण शरीर में हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों और संस्कारों का संचय है। यह वह शरीर है जिसमें हमारे संस्कार और कर्म संचित होते हैं और जिसके कारण हम अगले जन्म में जन्म लेते हैं। इससे शरीर में जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था की अवबोधन रहती है।

कारण शरीर का सीधा संबंध मोक्ष या पूर्ण मुक्ति से है। जब कोई व्यक्ति अपने कारण शरीर के संस्कारों और कर्मों को पार कर जाता है, तो वह पूरी तरह से मुक्त हो जाता है और आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है।

 

प्राणायाम की अवस्थाएँ।

 

आचार्यों ने प्राणायाम की अवस्थाओं का वर्णन चार चरणों में किया हैं।

  1. आरंभ।
  2. घट।
  3. परिचय।
  4. निष्पत्ति।

1. आरंभ।

प्रारंभिक अवस्था में साधक की प्राणायाम के प्रति जिज्ञासा और रुचि जागृत होती है। पहले तो वह जल्दी करता है और थका हुआ महसूस करता है। त्वरित परिणामों के कारण उसका शरीर कांपने लगता है और पसीना आने लगता है। जब कोई व्यक्ति धैर्य के साथ व्यवस्थित रूप से अभ्यास करता है, तो पसीना और कंपकंपी बंद हो जाती है और वह दूसरे चरण में पहुंच जाता है। जो घट अवस्था कहलाती है।

2. घट।

घट अवस्था, शरीर की तुलना घड़े से की गई है, जैसे कच्चा मिट्टी का घड़ा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार पंचतत्वों से बना भौतिक शरीर भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, परंतु यदि इसे प्राणायाम की अग्नि में खूब तपाया जाए और क्रमशः धीरे-धीरे प्राणायाम का अभ्यास किया जाए तो यह स्थिर हो जाता है। और फिर साधक अगले चरण में प्रवेश कर जाता है। जिसे परिचयात्मक अवस्था कहते है। 

3. परिचय।

परिचयात्मक अवस्था, इस अवस्था में साधक को अपने बारे में और प्राणायाम के अभ्यासों के बारे में विशेष ज्ञान प्राप्त होता है, जिससे साधक अपने गुणों और अवगुणों को पहचानता है और अपने कर्मों के कारणों को पहचानता है। और फिर साधक अगले चरण में प्रवेश कर जाता है। जिसे निष्पत्ति अवस्था कहते है। 

4. निष्पत्ति।

निष्पत्ति अवस्था, यह साधक की परम उन्नति का अंतिम चरण है। उनके प्रयास सफल हैं। वह कर्मों का नाश करता है। वह सभी गुणों से युक्त हो जाता है और वह आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है।

 

प्राणायाम का उद्देश्य।

प्राणायाम के कई उद्देश्य हैं उनमें से एक है संपूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करते हुए लंबी आयु प्रदान करना। प्राणायाम के माध्यम से हम सांसों की गति को नियंत्रित कर खुश रह सकते हैं। हम प्रकृति में यह भी देखते हैं कि जो संजीव तेजी से सांस लेते हैं उनकी उम्र कम होती है। जैसे

क्र.म. जीव-जंतु समय  श्वास-प्रश्वास उम्र
1. कछुआ 1 मिनिट 4-5 बार 200-400 वर्ष
2. सर्प 1 मिनिट 8-10 बार 120-150 वर्ष
3. मनुष्य 1 मिनिट 15-16 बार 100 वर्ष
4. घोड़ा 1 मिनिट 24-26 बार 40 वर्ष
5. बिल्ली 1 मिनिट 30 बार 20 वर्ष
6. कुत्ता 1 मिनिट 30 से 32 बार 14-15 वर्ष

इस प्रकार सिद्ध होता है कि श्वास की गति को नियंत्रित कर हम अपने बहुमूल्य जीवन को बढ़ा सकते हैं।

 

प्राणायाम में श्वसन प्रक्रिया के प्रकार।

प्राणायाम में श्वसन प्रक्रिया को समझने के लिए हमें उदर श्वसन, उरः श्वसन, अक्षक श्वसन एवं यौगिक श्वसन को समझ लेना चाहिए।

  1. उदर श्वसन।
  2. उरः श्वसन।
  3. अक्षक श्वसन।
  4. यौगिक श्वसन।

1. उदर श्वसन।

2. उरः श्वसन या वक्षः श्वसन।

3. अक्षक श्वसन।

4. पूर्ण या यौगिक श्वसन।

प्राणायाम का अभ्यास काल और अवधि।

हठयोग प्रदीपिका के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में इसका वर्णन है। इसमें प्राणायाम करने के समय और अवधि को  विस्तार से बताया गया है। जो उत्कृष्ट योगी के लिए संभव है। हमारे सांसारिक जीवन में प्राणायाम को इतने विस्तार से करना संभव नहीं है। इसीलिए, यदि संभव हो तो सूर्योदय से पहले प्राणायाम करना बेहतर होता है। यह समय स्फूर्तिदायक, ताजगी देने वाला और तनाव से मुक्त है। यदि आप प्राणायाम सुबह नहीं कर सकते तो सूर्यास्त के ठीक आसपास करना अच्छा रहता है। जो भक्त ध्यान या मंत्र जाप करते हैं, अगर वे इस दौरान प्राणायाम करें तो उन्हें दोगुना लाभ मिलता है।

प्राणायाम से संबंधी नियम व सावधानियाँ।

नियम

प्राणायाम के दौरान विशेष बातें का ध्यान रखें।

स्नान।

वस्त्र।

स्थान।

ध्यान।

श्वास का क्रम।

समय।

नेत्र।

आहार।

आयु व अवस्था।

सावधानियाँ

 

प्राणायाम से होने वाले लाभ।

प्राणायाम के प्रकार।

1. नाड़ी-शोधन प्राणायाम/अनुलोम-विलोम प्राणायाम।
2. सूर्य-भेदन प्राणायाम।
3. उज्जायी प्राणायाम।
4. शीतली प्राणायाम।
5. भस्त्रिका प्राणायाम।
6. उद्गीथ प्राणायाम।
7. भ्रामरी प्राणायाम।
8. मूर्च्छा प्राणायाम। 
9. केवली प्राणायाम।
10 चंद्रभेदी प्राणायाम।
11. शीतकारी प्राणायाम।
12. कपाल-भाति प्राणायाम।
13. प्लाविनी प्राणायाम।

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