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    प्राणायाम क्या है? परिभाषा, लाभ, नियम, प्रकार और सावधानियां | 1

    प्राणायाम
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    भारतीयों के द्वारा प्राणायाम का अभ्यास हजारों वर्षों से किया जा रहा है। पहले प्राचीन महान योग गुरूओं के द्वारा यह ज्ञान मौखिक रूप में संचालित हुआ। प्राणायाम हठयोग, पतंजलि योग सूत्र  के सबसे महत्त्वपूर्ण अभ्यास में से एक है।

    प्राणायाम हमारे प्राण को एक नया आयाम देता है। प्राणायाम हमें श्वास लेने की कला सिखाता है और हमारे प्राण का उत्थान व विकास करता है।

    अष्टांग योग में प्राणायाम का एक विशेष स्थान और महत्त्व है। अनेक योग गुरु एवं योगाचार्यों ने प्राणायाम को विभिन्न तरीकों से परिभाषित किया लेकिन लगभग सभी ने एक जैसे ही प्रकार के अर्थ व्यक्त किए हैं। अष्टांगयोग का चतुर्थ पाद में लिखा है कि “प्राणास्य आयामः इति प्राणायामः” अर्थात प्राण का विस्तार ही प्राणायाम है। प्राणायाम का प्रतिदिन अभ्यास करने से प्राणशक्ति में अत्यधिक वृद्धि होती है।

    महर्षि पतंजलि के अनुसार :-

    तस्मिन्सति श्वास प्रश्वास योर्गति विच्छेदः प्राणायामः ।।

    अर्थ :- आसन की सिद्धि होने पर श्वास प्रश्वास का जो गति विच्छेद किया जाता है अर्थात् जो उदयाभाव है, वही प्राणायाम है। अर्थात् आसन की सिद्धि के बाद पूरक अर्थात प्राणवायु को अन्दर लेने व रेचक अर्थात प्राणवायु को बाहर छोड़ने तथा प्राण वायु को अपनी सुविधानुसार रोक देना या स्थिर कर देना, वही प्राणायाम है।

    रेचक, पूरक और कुंभक के माध्यम से बाहरी और आंतरिक दोनों स्थानों में श्वसन गति के प्रवाह को रोकना प्राणायाम कहलाता है। कहा गया है कि योग आसन के अभ्यास के बाद प्राणायाम करना चाहिए। इससे यह प्रतीत होता है कि जो लोग योग आसन का अभ्यास किए बिना प्राणायाम करते हैं, वे गलत कर रहे हैं। प्राणायाम का अभ्यास करते समय आसन का स्थिर होना आवश्यक है।

    प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ।

    प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है प्राण+आयाम। 

    प्राण :- प्राण का अर्थ है ‘जीवन शक्ति’,’सांस’। प्राण एक ऐसी ऊर्जा है। जो किसी न किसी रूप व स्तर पर सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है। प्राण ऊर्जा सभी जीव-जंतुओं में सूक्ष्म और सशक्त रूप से पाई जाती है। प्राण में निहित है ऊर्जा, ओज, तेज, वीर्य (शक्ति) और जीवनदायिनी शक्ति। 

    आयाम :- आयाम के कई अलग-अलग अर्थ हैं जिनमें विस्तार, फैलाव, विनियमन, लंबाई, उठना अवरोध या नियंत्रण शामिल है। अतः प्राणायाम का अर्थ हुआ प्राण अर्थात श्वसन (जीवन शक्ति) का विस्तार, दीर्धीकरण और फिर उसका नियंत्रण।

    प्राणायाम का विषय विशाल है। इसमें असीमित संभावनाएँ छिपी हुई हैं। इस में शरीर और मस्तिष्क के मध्य भीतरी सम्बंध की खोज की जाती है।

    प्राणायाम जितना सरल और आसान दिखता होता है, उतना है नहीं। जब कोई व्यक्ति प्राणायाम करने का प्रयास करता है तो उसे लगने लगता है कि यह कोई हँसी-मज़ाक का विशेष नहीं है, बल्कि एक जटिल परन्तु सार्थक कला है। प्राणायाम कोई काल्पनिक क्रिया नहीं है अपितु तत्काल अर्थात्  बहुत ही शीघ्र प्रभावशाली है। प्राणायाम की कई क्रियाएँ तो सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती चली जाती हैं।

    आज के समयकाल का व्यक्ति कुछ ज़्यादा ही तनावपूर्ण हो गया है। ऐसा मानों की संतुलित एवं शांतिमय जीवन जीना बहुत कठिन हो गया है। कुछ व्यक्ति मानसिक समस्याओं से पीड़ित हैं तो कुछ सामाजिक एवं व्यावहारिक कारणों से। इन सभी समस्याओं से खुद को शांत व स्थिर बनाए रखने के लिए व्यक्ति तरह-तरह के नशीले पदार्थो का सेवन करता है किंतु सत्य तो यह है कि इन सभी मादक द्रव्यों का सेवन करने से शांति नहीं मिलती बल्कि यह जीवन को नर्क बना लेता है। संभवतया धूम्रपान और नशीले पदार्थो का सेवन करने से कुछ समय के लिए दुःख भूल जाएँ परंतु यह समस्या का हल नहीं है।

    जैसे ही नशीले पदार्थों का असर कम होता वे सभी शारीरिक और मानसिक विकार तो पुनः लौटकर आ जाते हैं। हमने प्रयोगात्मक रूप से देखा है कि जीवन में प्राणायाम जैसा सशक्त माध्यम अपनाने से हम हमारे जीवन को बेहतर बना सकते हैं हम कई समस्याओं को हल कर सकते हैं।

    प्राण

    प्राण का अर्थ।

    प्राण का अर्थ है ‘जीवन शक्ति’,’सांस’। प्राण एक ऐसी ऊर्जा है। जो किसी न किसी रूप व स्तर पर सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है। प्राण ऊर्जा सभी जीव-जंतुओं में सूक्ष्म और सशक्त रूप से पाई जाती है। प्राण में निहित है ऊर्जा, ओज, तेज, वीर्य (शक्ति) और जीवनदायिनी शक्ति।

    प्राण क्या है।

    प्राण को अच्छे प्रकार से समझ लेना बहुत जरूरी है अगर हम प्राण को ठीक प्रकार से नहीं समझेंगे तो हम प्राणायाम से भी पूर्णतः लाभ प्राप्त नहीं कर सकते और इस बात को भी समझ लेना बहुत ज्यादा जरूरी है कि प्राण जिसको हम अनुभव करते हैं जो नासिका के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश करता है मात्र यही तक इसकी भूमिका नहीं है प्राण का जो विस्तार है वह बहुत अधिक है

    उपनिषद, ग्रंथ  आदि में भी प्राण ऊर्जा के विषय में विस्तार से बताया गया है। प्राण ऊर्जा को हम कुछ इस प्रकार से समझ सकते हैं कि एक ब्रह्मांडी ऊर्जा है। जो कि हमारे चारों ओर फैली हुई है। हम इस ऊर्जा को ग्रहण करते हैं और इसी से हमारे शरीर का हर एक अंग और शरीर की हर एक क्रिया चलती है। यहां तक कि हमारे सोचने-समझने की शक्ति हमारे विचार भी इस प्राण ऊर्जा के आधार पर ही चलते हैं। और ऐसा मानों की हमारे शरीर और मन की प्रत्येक क्रिया के साथ प्राण जुड़ा हुआ है।

    अगर प्राणों में असंतुलन हो जाता है अगर हमें पर्याप्त मात्रा में प्राण ऊर्जा नहीं मिलती है या हम पर्याप्त मात्रा में प्राण ऊर्जा को ग्रहण नहीं करते हैं तो इसका स्पष्ट प्रभाव हमें हमारे शारीरिक और मानसिक स्थिति पर देखने को मिलेगा। हम अपने विचारों को अपने सोचने-समझने की क्षमता को खोने लगते हैं। हमारे शरीर से लेकर के हमारे मन तक सभी जो एक प्रकल्प है वह प्रभावित हो जाता है और हम कहीं ना कहीं अपनी गुणवत्ता और अपने स्वास्थ्य को भी खोने लगते हैं।

    हमारे चारों ओर पर्याप्त मात्रा में प्राण ऊर्जा उपलब्ध है इस प्राण ऊर्जा को हम कितना ग्रहण कर सकते हैं। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है अगर हम इस प्राण ऊर्जा को अधिक मात्रा में ग्रहण कर लेते हैं तो हमारे शरीर के अंदर कार्य करने वाले जो पांच प्राण है। (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) वह विकसित हो जाते है और प्राण ऊर्जा का स्तर हमारे अंदर बढ़ना शुरू हो जाता है। जितना ज़्यादा प्राण ऊर्जा का स्तर बढ़ेगा हमारे शरीर की क्रिया क्षमता भी उतनी ही बढ़ती जाएगी हम ज्यादा आत्मविश्वास से युक्त हो जाएंगे हम में सोचने और समझने की क्षमता बेहतर होगी। हमारे विचारों में सकारात्मकता आएंगी।

    इसको एक उदाहरण के माध्यम से समझने की कोशिश करें जैसे कि हमने देखा होगा दो व्यक्ति जो एक जैसी परिस्थिति से गुजरते हैं लेकिन उस परिस्थिति में एक व्यक्ति टूट जाता है और एक सक्षम होकर के खड़ा रहता है इसका कारण यही है कि  कि जो सक्षम है उसके अंदर प्राण ऊर्जा का विकास हो चुका है उसके अंदर अधिक प्राण ऊर्जा है।

    इसको हम एक और उदाहरण के माध्यम से समझने की कोशिश करते जैसे जब घरों तक आने वाली बिजली का वोल्टेज कम हो जाता है तो जो हमारे घरों में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे पंखे, कूलर हैं वो धीरे-धीरे चलने शुरू हो जाएंगे और जैसे-जैसे बिजली का वोल्टेज बढ़ेगा इलेक्ट्रिसिटी की सप्लाई बढ़ेगी उतना ही इलेक्ट्रॉनिक उपकरण तेज और बेहतर तरीके से चलने लगेंगे।

     इसी प्रकार अगर हमारे शरीर में पर्याप्त मात्रा में प्राण ऊर्जा पहुंचती है तो हमारे शरीर का हर एक अंग और शरीर की एक-एक कोशिका बेहतर तरीके से काम करना शुरू कर देती है और जब हमारे शरीर की कोशिकाएं स्वस्थ एवं विकसित होती है तो यह हमारे शरीर की क्षमता को बढ़ती है हमको ऊर्जावान और युवा बनाती है।

    अर्थात् हमारे अन्दर जितनी अधिक प्राण ऊर्जा होगी। हमारा स्वास्थ्य उतना ही अधिक स्वस्थ होगा। हमारे अन्दर सोचते-समझने की क्षमता अच्छी होगी। विचारों में सकारात्मकता आएंगी। मस्तिष्क सक्षम, बेहतर और शांत हो सकेगा। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होगा।

    प्राण ऊर्जा के विषय में हठयोग का यह मूल सिद्धांत है हठयोग इसी के ऊपर टिका हुआ है अगर प्राण ऊर्जा का प्रयोग आप नहीं कर रहे हैं तो आप हट योग को भी ठीक से नहीं समझ रहे हैं हमारे शरीर में यह प्राण किस तरीके से कार्य करते हैं और कौन सा प्राण हमारे शरीर के किस हिस्से को प्रभावित करता है और अगर हम प्राणों का संतुलन कर लेते हैं प्राण ऊर्जा को बढ़ा लेते हैं तो कौन-कौन से फायदे हमको मिल सकते हैं।

    चरक संहिता सूत्रस्थान 12/7 में महर्षि चरक ने प्राण को पाँच भागों में विभक्त किया है, और वशिष्ठ संहिता में प्राण 70 प्रकार के बताये गये हैं।

    प्राण के प्रकार।

    महर्षि चरक ने प्राण को पाँच भागों में विभक्त किया है। और अधिक जाने यहां क्लिक करें।

     

    शरीर के प्रकार।

    प्राणायाम

     

    शरीर को तीन भागों में विभक्त किया गया है। वेदांत के अनुसार भी तीन प्रकार या रूप (स्थूल शरीर,सूक्ष्म शरीर,कारण शरीर) का होता है। जो कि आत्मा को माण्डलिक रूप से घेरे रहता है। इन तीनों रूपों के पाँच अंतर्भेदी और अंतःआश्रित कोष होते हैं।

    1. स्थूल शरीर।
    2. सूक्ष्म शरीर।
    3. कारण शरीर।

    1. स्थूल शरीर।

    स्थूल शरीर जन्म के बाद जो शरीर सामने दिखाई देता है, वह स्थूल शरीर होता है। शारीरिक अन्नमय कोष कहलाता है तथा यह आकार मोटा होता है। इससे सांसारिक कार्य किये जाते है, इस शरीर को सांसारिक दुखों से गुजरना पड़ता है। 

    स्थूल शरीर वह भौतिक शरीर है जिसे हम अपनी आँखों से देख और छू सकते हैं। भौतिक शरीर का मुख्य कार्य जीवन की विभिन्न गतिविधियों जैसे खाना, पीना, सोना, चलना और अन्य शारीरिक गतिविधियों में भाग लेना है। स्थूल शरीर सप्तधातु से बना है जिसमें रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र शामिल हैं। हम जो भोजन करते हैं उससे रस बनता है और उस रस से रक्त बनता है, उस रस से मांस बनता है, मांस से मेद बनता है, मेद से हड्डी बनती है, हड्डी से मज्जा बनती है, मज्जा से शुक्र बनता है।

    यह स्थूल शरीर पांच महाभूतों – पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश से बना है। ये पांच महाभूत भौतिक शरीर की विविधता और संरचना को प्रकट करते हैं।

    2. सूक्ष्म शरीर।

    सूक्ष्म शरीर हमारे भौतिक शरीर का अदृश्य हिस्सा है। इसका निर्माण मनोमय, प्राणमय और विज्ञानमय कोष करते हैं। और यह हमारी भावनाओं, विचारों और प्राणिक ऊर्जा से संबंधित है। जबकि हमारा स्थूल शरीर (भौतिक शरीर) मृत्यु के बाद नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर मृत्यु के बाद भी बना रहता है। जिसे हम सामान्य भाषा में आत्मा कहते है। आध्यात्मिक उन्नति में सूक्ष्म शरीर को समझना महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमें जीवन और माया की गहराई को समझने में मदद करता है। यदि हम सूक्ष्म शरीर को सही ढंग से पहचान लें और इस पर नियंत्रण कर लें तो हम आध्यात्मिक रूप से प्रगति कर सकते है, उन्नत हो सकते हैं।

    3. कारण शरीर।

    आनंदमय कोष कहलाता है और इसके कारण साधक को चेतना का अनुभव होता है। व्यक्ति के तीन शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म और कारण) में से सबसे सूक्ष्म और अदृश्य शरीर माना जाता है, क्योंकि कारण शरीर में हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों और संस्कारों का संचय है। यह वह शरीर है जिसमें हमारे संस्कार और कर्म संचित होते हैं और जिसके कारण हम अगले जन्म में जन्म लेते हैं। इससे शरीर में जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था की अवबोधन रहती है।

    कारण शरीर का सीधा संबंध मोक्ष या पूर्ण मुक्ति से है। जब कोई व्यक्ति अपने कारण शरीर के संस्कारों और कर्मों को पार कर जाता है, तो वह पूरी तरह से मुक्त हो जाता है और आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है।

     

    प्राणायाम की अवस्थाएँ।

    प्राणायाम

     

    आचार्यों ने प्राणायाम की अवस्थाओं का वर्णन चार चरणों में किया हैं।

    1. आरंभ।
    2. घट।
    3. परिचय।
    4. निष्पत्ति।

    1. आरंभ।

    प्रारंभिक अवस्था में साधक की प्राणायाम के प्रति जिज्ञासा और रुचि जागृत होती है। पहले तो वह जल्दी करता है और थका हुआ महसूस करता है। त्वरित परिणामों के कारण उसका शरीर कांपने लगता है और पसीना आने लगता है। जब कोई व्यक्ति धैर्य के साथ व्यवस्थित रूप से अभ्यास करता है, तो पसीना और कंपकंपी बंद हो जाती है और वह दूसरे चरण में पहुंच जाता है। जो घट अवस्था कहलाती है।

    2. घट।

    घट अवस्था, शरीर की तुलना घड़े से की गई है, जैसे कच्चा मिट्टी का घड़ा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार पंचतत्वों से बना भौतिक शरीर भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, परंतु यदि इसे प्राणायाम की अग्नि में खूब तपाया जाए और क्रमशः धीरे-धीरे प्राणायाम का अभ्यास किया जाए तो यह स्थिर हो जाता है। और फिर साधक अगले चरण में प्रवेश कर जाता है। जिसे परिचयात्मक अवस्था कहते है। 

    3. परिचय।

    परिचयात्मक अवस्था, इस अवस्था में साधक को अपने बारे में और प्राणायाम के अभ्यासों के बारे में विशेष ज्ञान प्राप्त होता है, जिससे साधक अपने गुणों और अवगुणों को पहचानता है और अपने कर्मों के कारणों को पहचानता है। और फिर साधक अगले चरण में प्रवेश कर जाता है। जिसे निष्पत्ति अवस्था कहते है। 

    4. निष्पत्ति।

    निष्पत्ति अवस्था, यह साधक की परम उन्नति का अंतिम चरण है। उनके प्रयास सफल हैं। वह कर्मों का नाश करता है। वह सभी गुणों से युक्त हो जाता है और वह आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है।

     

    प्राणायाम का उद्देश्य।

    प्राणायाम के कई उद्देश्य हैं उनमें से एक है संपूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करते हुए लंबी आयु प्रदान करना। प्राणायाम के माध्यम से हम सांसों की गति को नियंत्रित कर खुश रह सकते हैं। हम प्रकृति में यह भी देखते हैं कि जो संजीव तेजी से सांस लेते हैं उनकी उम्र कम होती है। जैसे

    क्र.म.जीव-जंतुसमय श्वास-प्रश्वासउम्र
    1.कछुआ1 मिनिट4-5 बार200-400 वर्ष
    2.सर्प1 मिनिट8-10 बार120-150 वर्ष
    3.मनुष्य1 मिनिट15-16 बार100 वर्ष
    4.घोड़ा1 मिनिट24-26 बार40 वर्ष
    5.बिल्ली1 मिनिट30 बार20 वर्ष
    6.कुत्ता1 मिनिट30 से 32 बार14-15 वर्ष

    इस प्रकार सिद्ध होता है कि श्वास की गति को नियंत्रित कर हम अपने बहुमूल्य जीवन को बढ़ा सकते हैं।

     

    प्राणायाम में श्वसन प्रक्रिया के प्रकार।

    प्राणायाम

    प्राणायाम में श्वसन प्रक्रिया को समझने के लिए हमें उदर श्वसन, उरः श्वसन, अक्षक श्वसन एवं यौगिक श्वसन को समझ लेना चाहिए।

    1. उदर श्वसन।
    2. उरः श्वसन।
    3. अक्षक श्वसन।
    4. यौगिक श्वसन।

    1. उदर श्वसन।

    • सर्वप्रथम ध्यान के किसी भी आसन में बैठ जाएँ या शवासन की स्थिति में लेट जाएँ। और सामान्य श्वास-प्रश्वास करें।
    • अब अपने दाएँ हाथ को पेट पर नाभि की जगह पर रखें और बाएँ हाथ को हृदय पटल के मध्य पर रखें।
    • अब लम्बा साँस लें। साँस लेने के साथ ही पेट का क्षेत्र ऊपर उठने लगता है परन्तु बाएँ हाथ वाला हृदय पटल नीचे की तरफ़ जाता है।
    • अब धीरे-धीरे गहरी साँस लें। इस दौरान पेट के क्षेत्र को जितना फैला सकते हैं फैलाएँ परन्तु हृदय क्षेत्र को न फैलाएँ।
    • अब सांस छोड़ें। पेट का भाग नीचे की ओर जाता है, दाहिना हाथ नीचे मेरुदण्ड की ओर जाता है।
    • इस प्रकार रेचक पूरक करें परन्तु छाती क्षेत्र (वक्षः स्थल) एवं कंधों को स्थिर रखें।

    2. उरः श्वसन या वक्षः श्वसन।

    • इस प्रकार के श्वसन में पसलियों के पिंजरे (thoracic cage) को पूरी तरह फैलाकर श्वसन किया जाता है। 
    • सर्वप्रथम ध्यान के किसी भी आसन में बैठ जाएँ या शवासन की स्थिति में लेट जाएँ। 
    • अब अपना पूरा ध्यान वक्षीय पिंजरे पर केंद्रित करते हुए सांस लें। 
    • किसी भी ध्यान मुद्रा में बैठ जाएं या शवासन की स्थिति में लेट जाएं। पूरा ध्यान वक्षीय पिंजरे पर केंद्रित करते हुए सांस लें। 
    • अब हमें अपने उदर क्षेत्र को फैलाए बिना वक्षीय पिंजरे के अंदर सांस लेनी है। अर्थात् श्वास को वक्षीय क्षेत्र में भरना है उधर क्षेत्र में नहीं।
    • अब जितना संभव हो वक्षीय क्षेत्र को फैलाएं और  वक्षीय क्षेत्र में आने वाली सांस के प्रति सचेत रहें।
    • अब सांस छोड़ें और वक्ष स्थल को सिकुड़ते हुए महसूस करें। कुछ देर आराम करने के बाद इसे  पुनः दोहराएं करें। 
    • इस प्रकार कुछ देर तक उरः श्वसन करें। इसे वक्षः श्वसन भी कहते हैं।

    3. अक्षक श्वसन।

    • सर्वप्रथम ध्यान के किसी भी आसन में बैठ जाएँ।
    • इस प्रकार के श्वसन में वक्ष क्षेत्र को श्वास लेते हुए पूरी तरह फैलाएँ, फिर थोड़ी और श्वास लें। ऐसा करने से गर्दन, मुख्य रूप से फेफड़ों के ऊपरी हिस्से की मांसपेशियां सक्रिय हो जाती हैं।
    • अब श्वास बाहर छोड़े और गर्दन की मांसपेशियों एवं वक्ष क्षेत्र में तनाव को दूर करें।
    • अब प्रारंभिक स्थिति में वापस आएँ। इसी तरह इस क्रिया को दोबारा दोहराएं।

    4. पूर्ण या यौगिक श्वसन।

    • इस प्रकार के श्वसन में क्रमशः उदर, वक्ष और अक्षीय श्वसन की तीन विधियाँ संयुक्त होती हैं। 
    • सर्वप्रथम ध्यान के किसी भी आसन में बैठ जाएँ या शवासन की स्थिति में लेट जाएँ। 
    • अब धीरे-धीरे गहरी सांस लें और पेट के क्षेत्र को फैलने दें। पेट के बाद अब वायु फेफड़ों में प्रवेश कराएँ। 
    • अब धीरे-धीरे और सांस लें, जिससे गर्दन की मांसपेशियों के सभी हिस्सों में तनाव पैदा हो। पेट, फेफड़े और गर्दन की मांसपेशियों के प्रति सचेत रहें।
    • अब धीरे-धीरे क्रमशः गर्दन की माँसपेशियों वक्षःस्थल एवं उदर प्रदेश को शिथिल करते हुए श्वास बाहर छोड़े अर्थात् रेचक क्रिया करें। 
    • उदर क्षेत्र की मांसपेशियों और फेफड़ों पर हल्का दबाव डालकर जितना संभव हो उतनी वायु निकाल दें।
    • ये सभी क्रियाएँ एक कर्म में एवं लयबद्ध तरीके से की जानी चाहिए न कि खंडित तरीके से।
    • इस प्रकार चार श्वासों को समझकर हम प्राणायाम के महत्व को अपने जीवन में क्रियान्वित करके अधिक आत्मसात कर सकते हैं।

    प्राणायाम का अभ्यास काल और अवधि।

    हठयोग प्रदीपिका के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में इसका वर्णन है। इसमें प्राणायाम करने के समय और अवधि को  विस्तार से बताया गया है। जो उत्कृष्ट योगी के लिए संभव है। हमारे सांसारिक जीवन में प्राणायाम को इतने विस्तार से करना संभव नहीं है। इसीलिए, यदि संभव हो तो सूर्योदय से पहले प्राणायाम करना बेहतर होता है। यह समय स्फूर्तिदायक, ताजगी देने वाला और तनाव से मुक्त है। यदि आप प्राणायाम सुबह नहीं कर सकते तो सूर्यास्त के ठीक आसपास करना अच्छा रहता है। जो भक्त ध्यान या मंत्र जाप करते हैं, अगर वे इस दौरान प्राणायाम करें तो उन्हें दोगुना लाभ मिलता है।

    प्राणायाम से संबंधी नियम व सावधानियाँ।

    नियम

    प्राणायाम के दौरान विशेष बातें का ध्यान रखें।

    • प्राणायाम का अभ्यास ध्यान की मुद्रा में बैठकर करना चाहिए। सिद्धासन, पद्मासन, सुखासन एवं स्वस्तिकासन प्राणायाम के लिए अधिक उपयोगी रहते हैं।
    • सबसे पहले, प्राणायाम के अभ्यास के लिए दो बातें बहुत आवश्यक हैं। एक मन की स्थिरता और दूसरी मेरुदण्ड की स्थिरता। मेरुदण्ड को ऐसी स्थिति में रखकर प्राणायाम का अभ्यास करें कि वह न तो बहुत पीछे की ओर झुका हो और न ही बहुत आगे की ओर। पीछे की ओर झुकने से फेफड़े फैल जाते हैं। आगे की ओर झुकने के कारण ये फैल नहीं पाते हैं। इसलिए अभ्यासकर्ता को मेरुदण्ड में स्थिरता लानी चाहिए।
    • योगासन के बाद और ध्यान से पहले प्रसन्न मन से प्राणायाम करें या अपनी सुविधानुसार करें। 
    • कोशिश करें कि प्राणायाम करने का समय, स्थान और दिशा निश्चित हो। 
    • यदि बहुत ज्यादा मानसिक पीड़ा हो, मन और शरीर परेशान हो, हताशा, उदासी या कोई भ्रम हो तो मन को शांति देने के लिए कोई हल्का आसन करें या शवासन करें, उसके बाद ही प्राणायाम की शुरुआत करें।
    • प्राणायाम के अभ्यास से पूर्व मूत्राशय और अंतराशय (ऑतों) को खाली कर लेना चाहिए।
    • कुछ प्राणायाम गर्मी बढ़ाते हैं और कुछ सर्दी बढ़ाते हैं। इसलिए, केवल वही अभ्यास करें जो परिस्थिति के अनुकूल हो।
    • मन की एकाग्रता और श्वास में लय बहुत आवश्यक है।
    • नियमित अभ्यास से फुफ्फुसों के तंतु लचीले हो जाते हैं जिससे प्राणायाम उचित ढंग से होता है।
    • सामान्य मनुष्य के लिए यह अति आवश्यक है कि उसकी नाड़ियों में प्रवाहित होने वाले रक्त में ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में हो। यह पूर्ति प्राणायाम के माध्यम से हो जाती है।
    • प्राणायाम के बाद शवासन में विश्राम करें।

    स्नान।

    प्राणायाम

    • स्नान के बाद अगर आप प्राणायाम करेंगे तो ज्यादा फायदेमंद रहेगा। 
    • प्राणायाम के तुरंत बाद स्नान न करें। स्नान के लिए करीब आधे घंटे तक इंतजार करें।

    वस्त्र।

    प्राणायाम

    • योगाभ्यास करते समय ज्यादा टाइट कपड़े न पहनें टाइट कपड़े पहनकर योगाभ्यास करने में दिक्कत आती है। 
    • योगाभ्यास के समय ढीले-ढाले, आरामदायक, सूती एवं सुविधाजनक वस्त्रों का ही प्रयोग करें।
    • पुरुष साधकों को योगाभ्यास के समय कच्छा या लंगोट अवश्य पहनना चाहिए।
    • आसन के लिए कंबल या दरी का प्रयोग करें।

    स्थान।

    प्राणायाम

    • अभ्यास का स्थान शुद्ध और एकांत होना चाहिए, हवा साफ होनी चाहिए और वायु संचार अच्छा होना चाहिए। 
    • यदि संभव हो तो जिस स्थान पर आप प्राणायाम करें वहां की वायु को शुद्ध करें। अगरबत्ती, गुग्गल या शुद्ध घी का दीपक जलाने से मन में भी पवित्रता की वृद्धि होती है। (चित्त की शुद्धता बढ़ती है।)

    ध्यान।

    • प्राणायाम संबंधित क्रियाओं को करते समय मन को चिंता, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, भय, अहंकार, प्रतिशोध की भावना आदि उद्वेगों से पूर्णतः मुक्त रखें।
    • तन की तरह मन भी स्वच्छ होना चाहिए योग करने से पहले सब बुरे ख़याल दिमाग़ से निकाल दें। और अपना पूरा ध्यान अपने प्राणायाम पर ही केंद्रित रखें।
    •  अभ्यास धैर्य और दृढ़ता से करें।

    श्वास का क्रम।

    • प्राणायाम की क्रिया को करते समय श्वास-प्रश्वास के प्रति सजगता बनाए रखें। साधक को क्रमशः अपने श्वास-प्रश्वास पर नियंत्रण करना चाहिए अन्यथा परिणाम विपरीत होते हैं।
    • योगाभ्यास के समय श्वास हमेशा नासिका द्वार से ही भरें, मुख से नहीं।
    • प्रत्येक योगासन का अपना एक श्वास क्रम होता है। उसका अवश्य ध्यान रखें।
    • मन को पूर्ण रूप से श्वास क्रिया पर केंद्रित करना चाहिए। इससे आपकी एकाग्रता-शक्ति, स्मरणशक्ति और मानसिक शक्ति का विकास तेजी से होगा। 

    समय।

    प्राणायाम

    • प्राणायाम का अभ्यास  सूर्योदय या सूर्यास्त के समय करना चाहिए। परंतु किसी कारण वश यदि किसी और समय करें तो यह भोजन से कम से कम चार घंटे बाद होना चाहिए। प्राणायाम के आधे घंटे बाद आप भोजन कर सकते हैं। इससे पहले नहीं।
    • योगशास्त्र के अनुसार पूरक, कुम्भक और रेचक का अंतराल 1:4:2 होना चाहिए। अर्थात् पूरक में लगने वाले समय का चार गुना कुम्भक में और पूरक में लगने वाले समय का दोगुना रेचक में लगाना चाहिए।

    नेत्र।

    • अपने नेत्रों को नासिका के अग्र पर केन्द्रित कर या बंद करके प्राणायाम का अभ्यास करें।

    आहार।

    प्राणायाम

    • शरीर को फुर्तीला, चुस्त-दुरुस्त और सुंदर बनाने के लिए जितना महत्त्व हम योग को देते हैं, उतना ही महत्त्व हमें भोजन को भी देना चाहिए।
    • प्राणायाम से कुछ समय पहले एक ग्लास ठंडा एवं ताजा पानी पी सकते हैं। यह सन्धि स्थलों का मल निकालने में अत्यंत सहायक होता है।
    • साधक को बहुत ज़्यादा खट्टा, तीखा, तामसी, बासा एवं देर से पचने वाले आहार का सेवन नहीं करना चाहिए।
    • साधक को तामसिक भोजन जैसे अंडा, मछली, मांस आदि का त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि “जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन”।
    • इस बात को आज के वैज्ञानिक भी मानते हैं कि हमारा भोजन सात्विक, शाकाहारी, शुद्ध, ताजा एवं जल्दी पचने वाला होना चाहिए। बहुत ज़्यादा खट्टा, तीखा, तामसी, बासा एवं देर से पचने वाला भोजन हमारे पाचन तंत्र को प्रभावित करते। जिससे हमारा स्वास्थ्य बिगड़ता है।
    • साधक को नशीले पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। 
    • योगासन व योग की क्रिया खाली पेट करें और भोजन करने के कम से कम 4-5 घंटे बाद ही योगाभ्यास क्रिया करें। एवं योग करने के 30 मिनिट बाद तक कुछ ना खायें। 

    आयु व अवस्था।

    • कम आयु वाले बच्चे कुंभक क्रिया का अभ्यास न करें।
    • प‌द्मासन या सिद्धासन में बैठकर करने से प्राणायाम सही ढंग से हो जाता है। (बूढ़े लोग या रोगी प्राणायाम का अभ्यास करने के लिए स्टूल या कुर्सी जैसी अन्य वस्तुओं का उपयोग कर सकते हैं)

    सावधानियाँ

    • बाहरी उपद्रवों जैसे मच्छर, मक्खी या अन्य छोटे जीव जंतुओं से बचे रहने की पूरी व्यवस्था करनी चाहिए। 
    • जल्दी-जल्दी या फेफड़े अवरुद्ध होने पर प्राणायाम न करें। 
    • प्राणायाम ठीक से न करने से मन अशांत हो जाता है, चिड़चिड़ापन, बेचैनी और तनाव उत्पन्न करता है। इसका असर चेहरे पर भी दिखता है, इसलिए ऐसे अशुद्ध अभ्यास से सदैव बचें।
    • तेज आवाज के बीच और घबराहट के समय प्राणायाम का अभ्यास न करें। 
    • यदि आपको प्राणायाम के दौरान या उसके बाद किसी भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक समस्या हो तो तुरंत किसी योग शिक्षक से सलाह लें। 
    • प्राणायाम की संख्या निर्धारित करें। सभी निर्देशों का पालन करते हुए संख्या बढ़ाएँ।
    • गंभीर रोगियों और गर्भवती महिलाओं को किसी योग शिक्षक की सलाह लेनी चाहिए और व्रत करने वाले व्यक्ति को कभी भी खाली पेट या खाने के तुरंत बाद प्राणायाम नहीं करना चाहिए। 
    • आसन सही ढंग से न करने पर सांस लेने की गति धीमी हो जाती है और सहनशीलता कम हो जाती है।
    • नए अभ्यासकर्ता को प्राणायाम करते समय धीरे-धीरे प्राणवायु का पूरक और रेचक करना चाहिए। रेचक और पूरक करते समय में जल्दबाज़ी न करें। धीरे-धीरे अभ्यास करें, इस प्रकार प्राणायाम का अभ्यास करने से कोई नुकसान नहीं होता है और न ही कोई बीमारी होती है। यदि कोई रोग हो भी तो वह धीरे-धीरे ठीक हो जाता है और योग सिद्धि प्राप्त कर लेता है।

     

    प्राणायाम से होने वाले लाभ।

    • यह दीर्घ आयु प्रदान करता है।
    • ब्रह्मचर्य और प्राणायाम को एक दूसरे का पूरक भी कहा जा सकता है। क्योंकि जो व्यक्ति प्राणायाम को पूरी एकाग्रता से करता है उसके विषय-कषाय दूर हो जाते हैं। काम-वासना शांत होती है और ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला साधक शीघ्र ही प्राणायाम को साध लेता है।
    • प्राणायाम के अभ्यास से पूरे शरीर में जीवन और शक्ति का संचार करता है। 
    • यह बुढ़ापे को दूर रखता है। बुढ़ापे में सांस लेने की गति धीमी होने से हृदय को पूरी मात्रा में ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है, जिससे फुफ्फुसों की वायु कोशिकाएं संकुचित हो जाती हैं। प्राणायाम के द्वारा साधक रक्त संचार की गति को सामान्य करता है और श्वास क्रिया को पूर्ण करता है।
    • त्रितोष नाशक है। (वात, पित्त, कफ का नाश करता है।)
    • यह दूषित नाड़ियों का शुद्धिकरण करके शरीर को फुर्तीला बनाता है। 
    • प्राणायाम से न केवल शारीरिक और मानसिक शक्ति बढ़ती है बल्कि यह आत्मा का उत्थान भी करता है। इसलिए प्राणायाम को अपने जीवन का हिस्सा बनाना चाहिए। 
    • शुद्ध भाव से किया गया अभ्यास व्यक्ति को सांसारिक विषय-वासनाओं से दूर कर देता है और साधक पाँचों इन्द्रियों को नियंत्रित करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।
    • जठराग्नि तीव्र होती है, जिससे कब्ज और ऐसी अन्य समस्याएँ नहीं होती।
    • रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास होता है।
    • प्राणायाम के माध्यम से अतीन्द्रिय ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का नाश होता है।
    • प्राणायाम का हमारे स्नायु प्रणाली (तंत्रिका तंत्र) से बहुत गहरा संबंध है। यदि ये ढह जाएं तो मन एकाग्र नहीं हो पाता। यदि स्नायु में तनाव है तो मन में भी तनाव होगा और जब तक मन शांत न हो और संज्ञानपूर्ण न हो तब तक प्राणायाम का अभ्यास नहीं किया जा सकता।
    • इससे उदर क्षेत्र के समस्त रोग दूर होते हैं और पाचन तंत्र संपूर्ण रूप से स्वस्थ होता है।
    • कब्ज कि समस्या दूर होती है। आँतों में मल नहीं चिपकता अतः वायु विकार (पेट फूलना) का भी दूर होता है।
    • वायु संबंधी रोग जैसे सिरदर्द, माइग्रेन, समय से पहले बालों का सफेद होना, वात दर्द (घुटनों का दर्द, पीठ दर्द आदि) दूर हो जाते हैं।
    • चेहरे में झुर्रिया समाप्त होती है, चेहरे पर चमक बढ़ती है। आँखों की रोशनी तेज होती है व सुन्दर दिखती हैं। 
    • प्राणायाम करने से पाचन तंत्र, फेफड़े और हृदय सुचारू रूप से कार्य करते हैं। जिससे शरीर को भरपूर मात्रा में ऑक्सीजन मिलती है और खून की शुद्धता बढ़ती है। रक्त संचार ठीक प्रकार से होता है। यदि रक्त संचार अच्छा हो तो पूरे शरीर को नया जीवन, नई चेतना और ऊर्जा मिलती है। शरीर का कायाकल्प हो जाता है 

    प्राणायाम के प्रकार।

    1.नाड़ी-शोधन प्राणायाम/अनुलोम-विलोम प्राणायाम।नाड़ी-शोधन प्राणायाम
    2.सूर्य-भेदन प्राणायाम।सूर्य भेदन प्राणायाम
    3.उज्जायी प्राणायाम।उज्जायी प्राणायाम
    4.शीतली प्राणायाम।शीतली प्राणायाम
    5.भस्त्रिका प्राणायाम।भस्त्रिका प्राणायाम
    6.उद्गीथ प्राणायाम।उद्गीथ प्राणायाम
    7.भ्रामरी प्राणायाम।भ्रामरी प्राणायाम
    8.मूर्च्छा प्राणायाम। मूर्च्छा प्राणायाम
    9.केवली प्राणायाम।केवली प्राणायाम
    10चंद्रभेदी प्राणायाम।चंद्रभेदी प्राणायाम
    11.शीतकारी प्राणायाम।शीतकारी प्राणायाम
    12.कपाल-भाति प्राणायाम।कपालभाति प्राणायाम
    13.प्लाविनी प्राणायाम।प्लाविनी प्राणायाम

    2 thoughts on “प्राणायाम क्या है? परिभाषा, लाभ, नियम, प्रकार और सावधानियां | 1”
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