इस लेख में हम बंध पर चर्चा करेंगे। इस लेख में मुख्यतः पांच प्रकार के बंधों का उल्लेख किया गया है। बंधों को करने का तरीका और बंधों के अभ्यास से होने वाले फायदों के बारे में बताया गया है। साथ में यह भी बताया गया है कि बंधों का अभ्यास करने के दौरान क्या सावधानी बरतें।
बन्ध का अर्थ होता है बंधन अर्थात् बाँधना, एक को दूसरे से मिलाना आदि।
बन्ध शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है क्योंकि इसमें शरीर के कुछ विशेष घटकों या आंतरिक अंगों को प्राण वायु द्वारा कसकर बांध दिया जाता है। ये बन्ध, शक्ति को अंदर की ओर निर्देशित (अंतरोन्मुख) करते हैं और प्राणायाम में सहायक होते हैं। जब प्राणायाम के माध्यम से साधक के शरीर में ऊर्जा प्रवाहित होती है तो ऊर्जा को बाहर की ओर जाने से रोकने के लिए साधक इन बंधों का प्रयोग करता है। अर्थात् प्राण उर्जा को बहिर्मुख होने से बचा लेता है। ये बन्ध प्राणायाम से उत्पन्न शक्ति को आंतरिक अंगों के बीच वितरित करने में मदद करते हैं।
कुंडली जागृत करने में भी इनका अभ्यास किया जाता है। बन्ध का कार्य आंतरिक अंगों से गंदगी निकालकर उन्हें अधिक स्वच्छ और सुखद बनाना है। बन्ध लगाने से शरीर के अंग मजबूत होते हैं। बन्ध के अभ्यास से एक तरह की मसाज होती है। बन्ध शरीर की विशिष्ट तंत्रिकाओं एवं नाड़ी-विशेष को उत्तेजित और सुचारू करके रक्तादि को शुद्ध करते हैं। इन्हें करने से वे सभी ग्रंथियां खुल जाती हैं जो हमारे शरीर में स्थित चक्रों में प्राण उर्जा के प्रवाह को रोकती हैं।
इस दौरान ऊर्जा के प्रवाह को सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से दिशा मिलती है, उन्नत अभ्यासकर्ता समाधि की स्थिति में इस अनुभव को प्राप्त करते हैं। प्राणायाम में बन्ध और मुद्रा के प्रयोग से विशेष लाभ मिलता है। चूँकि प्राणायाम के लिए कुम्भक (अंतकुम्भक या बहिकुम्भक) और बन्ध आवश्यक हैं। अत: कुम्भक अभ्यास की क्षमता बढ़ानी चाहिए।
यहां हम मुख्यतः पांच प्रकार के बंधों का उल्लेख करेंगे।
मूल बन्ध का अर्थ:- मूल का अर्थ होता है जड़, आधार या बुनियाद। बंध का अर्थ बंधन अर्थात् एक को दूसरे से बाँधना, मिलाना। योग में मूल बन्ध का सम्बंध मूलाधार चक्र से है, जो कि गुदा और जननेन्द्रिय (genitals) के बीच स्थित होता है।
विधि।
मूल बन्ध अभ्यास के लिए सर्वप्रथम पद्मासन या सिद्धासन में बैठ जाइए।
अब अपनी हथेलियों को घुटनों पर रखिए तथा ध्यान की अवस्था में बैठ जाए।
सिर, गर्दन और मेरुदण्ड एक सीध में व नेत्र बंद रखें और अपना ध्यान मूलाधार चक्र पर।
अब नासिका के माध्यम से श्वास ले। अंतःकुंभक लगाए। और इसी के साथ जालंधर बंध लगाए।
अब जननेन्द्रिय (genitals) भाग और गुदा के छिद्रों को सिकोड़ कर ऊपर की ओर खींचे। (जैसे आपने गाय, भैस आदि जानवर को मल त्यागने के पश्चात् देखा होगा कि वह किस प्रकार गुदा के छिद्रों को अंदर की तरफ खींचते हैं) वैसे ही आपको भी अपने गुदा के छिद्रों और मूलाधार चक्र क्षेत्र को ऊपर कि ओर खींचना है। यही मूलबंध की अंतिम अवस्था है।
अब अपनी क्षमता अनुसार रुकिए। अधोभाग डीला कीजिए व सिर ऊपर उठाइए एवं श्वास को बाहर छोड़िए।
इस व्यायाम को बाहिकुंभक की स्थिति में भी किया जा सकता है।
5-10 बार अनुकूलता अनुसार कीजिए।
ध्यान देने योग्य बात।
आसन करते समय ध्यान रखें कि एड़ी का दबाव गुदा भाग पर पड़े।
गलत व्यायाम के कारण शारीरिक कमजोरी और पौरुष शक्ति में कमी आने की संभावना रहेगी। अश्विनी मुद्रा का अभ्यास करने से साधक शीघ्र ही मूलबंध पर निपुणता प्राप्त कर लेता है।
उड्डियान का अर्थ होता है ऊँचा उड़ना। और बंध का अर्थ होता है बंधन अर्थात् एक को दूसरे से बाँधना, मिलाना। इस प्रक्रिया में ऊर्जा अधोभाग से उठकर ऊर्ध्वभाग तक प्रवाहित होती है या जब ऊर्जा ऊपर की ओर जाती है और सुषुम्ना में प्रवेश करती है तो इसे उड्डीयान बन्ध कहा जाता है।
विधि।
सर्वप्रथम सावधान स्थिति में खड़े हो जाएं।
अब दोनों पैरों के बीच करीब 1 या डेढ़ फीट का अंतर बनाएं।
अब दोनों घुटनों को थोड़ा मोड़ते हुए आगे की ओर झुकें और हाथों को घुटनों के पास जांघों पर रखें। (चित्रानुसार)
अब श्वास बाहर छोड़े, दीर्घ रेचक कीजिए एवं बाहृय कुंभक लगाए और जालंधर बंध में ठुड्डी को जितना संभव हो सके नीचे करें।
अब पूरे उदर स्थान (पेट) को मेरुदण्ड की ओर (अंदर की ओर) खींचे। (चित्रानुसार)
यही उड्डियान बंध की अंतिम एवं पुर्ण अवस्था है।
अनुकूलतानुसार अभ्यास करें। अब क्रमशः उदर को अपनी सामान्य स्थिति में लाएँ और जालंधर बन्ध को शिथिल (ढीला) करें।
अब पूरक करें एवं जब यह सामान्य हो जाए तो यही प्रक्रिया और दोहराएँ।
इसको शक्तिचालन प्राणायाम भी कहते हैं।
इस आसन का अभ्यास बैठकर पद्मासन, सिद्धासनमें बैठकर भी किया जाता है।
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