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बंध क्या है? अर्थ, प्रकार और लाभ।1

बंध

इस लेख में हम बंध पर चर्चा करेंगे।  इस लेख में मुख्यतः पांच प्रकार के बंधों का उल्लेख किया गया है। बंधों को करने का तरीका और बंधों के अभ्यास से होने वाले फायदों के बारे में बताया गया है। साथ में यह भी बताया गया है कि बंधों का अभ्यास करने के दौरान क्या सावधानी बरतें।

 बंध का शाब्दिक अर्थ। 

बन्ध का अर्थ होता है बंधन अर्थात् बाँधना, एक को दूसरे से मिलाना आदि। 

बन्ध शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है क्योंकि इसमें शरीर के कुछ विशेष घटकों या आंतरिक अंगों को प्राण वायु द्वारा कसकर बांध दिया जाता है। ये बन्ध, शक्ति को अंदर की ओर निर्देशित (अंतरोन्मुख) करते हैं और प्राणायाम में सहायक होते हैं। जब प्राणायाम के माध्यम से साधक के शरीर में ऊर्जा प्रवाहित होती है तो ऊर्जा को बाहर की ओर जाने से रोकने के लिए साधक इन बंधों का प्रयोग करता है। अर्थात् प्राण उर्जा को बहिर्मुख होने से बचा लेता है। ये बन्ध प्राणायाम से उत्पन्न शक्ति को आंतरिक अंगों के बीच वितरित करने में मदद करते हैं।

कुंडली जागृत करने में भी इनका अभ्यास किया जाता है। बन्ध का कार्य आंतरिक अंगों से गंदगी निकालकर उन्हें अधिक स्वच्छ और सुखद बनाना है। बन्ध लगाने से शरीर के अंग मजबूत होते हैं। बन्ध के अभ्यास से एक तरह की मसाज होती है। बन्ध शरीर की विशिष्ट तंत्रिकाओं एवं नाड़ी-विशेष को उत्तेजित और सुचारू करके रक्तादि को शुद्ध करते हैं। इन्हें करने से वे सभी ग्रंथियां खुल जाती हैं जो हमारे शरीर में स्थित चक्रों में प्राण उर्जा के प्रवाह को रोकती हैं।

इस दौरान ऊर्जा के प्रवाह को सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से दिशा मिलती है, उन्नत अभ्यासकर्ता समाधि की स्थिति में इस अनुभव को प्राप्त करते हैं। प्राणायाम में बन्ध और मुद्रा के प्रयोग से विशेष लाभ मिलता है। चूँकि प्राणायाम के लिए कुम्भक (अंतकुम्भक या बहिकुम्भक) और बन्ध आवश्यक हैं। अत: कुम्भक अभ्यास की क्षमता बढ़ानी चाहिए

यहां हम मुख्यतः पांच प्रकार के बंधों का उल्लेख करेंगे।

बन्ध मुख्यतः पांच प्रकार के होते है।

  1. मूल बंध
  2. उड्डियान बंध 
  3. जालंधर बंध
  4. महाबंध
  5. जिव्हा बंध

मूल बन्ध

शाब्दिक अर्थ।

  • मूल बन्ध का अर्थ:- मूल का अर्थ होता है जड़, आधार या बुनियाद। बंध का अर्थ बंधन अर्थात् एक को दूसरे से बाँधना, मिलाना। योग में मूल बन्ध का सम्बंध मूलाधार चक्र से है, जो कि गुदा और जननेन्द्रिय (genitals) के बीच स्थित होता है।

विधि।

  • मूल बन्ध अभ्यास के लिए सर्वप्रथम पद्मासन या सिद्धासन में बैठ जाइए। 
  • अब अपनी हथेलियों को घुटनों पर रखिए तथा ध्यान की अवस्था में बैठ जाए। 
  • सिर, गर्दन और मेरुदण्ड एक सीध में व नेत्र बंद रखें और अपना ध्यान मूलाधार चक्र पर।
  • अब नासिका के माध्यम से श्वास ले। अंतःकुंभक लगाए। और इसी के साथ जालंधर बंध लगाए।
  • अब जननेन्द्रिय (genitals) भाग और गुदा के छिद्रों को सिकोड़ कर ऊपर की ओर खींचे। (जैसे आपने गाय, भैस आदि जानवर को मल त्यागने के पश्चात् देखा होगा कि वह किस प्रकार गुदा के छिद्रों को अंदर की तरफ खींचते हैं) वैसे ही आपको भी अपने गुदा के छिद्रों और मूलाधार चक्र क्षेत्र को ऊपर कि ओर खींचना है। यही मूलबंध की अंतिम अवस्था है।
  • अब अपनी क्षमता अनुसार रुकिए। अधोभाग डीला कीजिए व सिर ऊपर उठाइए एवं श्वास को बाहर छोड़िए। 
  • इस व्यायाम को बाहिकुंभक की स्थिति में भी किया जा सकता है।
  • 5-10 बार अनुकूलता अनुसार  कीजिए।

ध्यान देने योग्य बात।

  • आसन करते समय ध्यान रखें कि एड़ी का दबाव गुदा भाग पर पड़े।
  • गलत व्यायाम के कारण शारीरिक कमजोरी और पौरुष शक्ति में कमी आने की संभावना रहेगी। अश्विनी मुद्रा का अभ्यास करने से साधक शीघ्र ही मूलबंध पर निपुणता प्राप्त कर लेता है।

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उड्डियान बन्ध

शाब्दिक अर्थ।

  • उड्डियान का अर्थ होता है ऊँचा उड़ना। और बंध का अर्थ होता है बंधन अर्थात् एक को दूसरे से बाँधना, मिलाना। इस प्रक्रिया में ऊर्जा अधोभाग से उठकर ऊर्ध्वभाग तक प्रवाहित होती है या जब ऊर्जा ऊपर की ओर जाती है और सुषुम्ना में प्रवेश करती है तो इसे उड्डीयान बन्ध कहा जाता है।

विधि।

  • सर्वप्रथम सावधान स्थिति में खड़े हो जाएं। 
  • अब दोनों पैरों के बीच करीब 1 या डेढ़ फीट का अंतर बनाएं। 
  • अब दोनों घुटनों को थोड़ा मोड़ते हुए आगे की ओर झुकें और हाथों को घुटनों के पास जांघों पर रखें। (चित्रानुसार)
  • अब श्वास बाहर छोड़े, दीर्घ रेचक कीजिए एवं बाहृय कुंभक लगाए और जालंधर बंध में ठुड्डी को जितना संभव हो सके नीचे करें। 
  • अब पूरे उदर स्थान (पेट) को मेरुदण्ड की ओर (अंदर की ओर) खींचे। (चित्रानुसार)
  • यही उड्डियान बंध की अंतिम एवं पुर्ण अवस्था है। 
  • अनुकूलतानुसार अभ्यास करें। अब क्रमशः उदर को अपनी सामान्य स्थिति में लाएँ और जालंधर बन्ध को शिथिल (ढीला) करें। 
  • अब पूरक करें एवं जब यह सामान्य हो जाए तो यही प्रक्रिया और दोहराएँ।
  • इसको शक्तिचालन प्राणायाम भी कहते हैं।
  • इस आसन का अभ्यास बैठकर पद्मासनसिद्धासन में बैठकर भी किया जाता है।

अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करें उड्डियान बन्ध पर विस्तृत विवेचना की गई है।

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जालंधर बन्ध

शाब्दिक अर्थ।

  • जाल का अर्थ होता है जाला, जाली और बन्ध का अर्थ होता है बंधन अर्थात् एक को दूसरे से बाँधना, मिलाना।

विधि।

  • सर्वप्रथम पद्मासनसिद्धासनस्वास्तिकासन या भद्रासन में से किसी भी एक आसन में बैठ जाएं।
  • मेरुदंड, गर्दन तथा छाती को एकदम सीधा रखें। 
  • अब अपने दोनों हाथों को घुटनों पर रखिए। 
  • अब लंबी श्वास लें और अंतःकुंभक करें।
  •  अब अपना सिर आगे की ओर झुकाएं।
  •  अब अपनी ठुड्डी को छाती के ऊपरी हिस्से (ऊर्ध्वभाग) में दबाएं। लेकिन छाती को ऊँचा उठाएँ ताकि ठुड्डी आसानी से छाती को छू सके। 
  • ग्रीवा क्षेत्र को नीचे की ओर दबाएं या धकेलें नहीं और गले की मांसपेशियों को शिथिल रखें।
  • अब तब तक रुके जब तक आप सामान्य कुम्भक कर सकें। 
  • अब शरीर को आराम दें तथा सिर को ऊपर की ओर उठाएं व धीरे-धीरे सांस छोड़ें। यह जालन्धर बन्ध कहलाता है। 
  • इस प्रकार इस प्रक्रिया को 5-10 बार दोहराएं।
  • जालंधर बन्ध खड़े होकर भी किया जा सकता है।

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महाबंध मुद्रा

विधि।

  • सर्वप्रथम अभ्यास के लिए ध्यान के किसी भी आसन में बैठें, परंतु मुख्यतः सिद्ध योगी आसन में ही बैठें। 
  • इसमें तीनों बन्ध एक साथ लगाने पड़ते हैं। (मूल बन्धउड्डियान बन्ध और जालंधर बन्ध) इसी लिए इसे महाबंध मुद्रा कहते है। 
  • अब श्वास लें। 
  • सबसे पहले जालंधर बन्ध लगाएँ फिर उड्डियान बन्ध और इसके पश्चात मूल बन्ध लगाएँ।
  • समस्त चक्रों पर क्रमशः मूलाधार से सहस्त्रार तक ध्यान लगाएँ। 
  • अब मूलाधार से सहस्रार तक क्रमशः सभी चक्रों पर ध्यान केन्द्रित करें। 
  • अब अपनी सुविधानुसार उसी स्थिति में रहें।
  • अब क्रमशः मूल बन्ध, उड्डीयान बन्ध और फिर जालंधर बन्ध खोलें। 
  • अब धीरे-धीरे सांस लें और मूल स्थिति में आने के बाद यही क्रम दोहराएं। 
  • उपरोक्त तीनों बंधों का अभ्यास अच्छी तरह हो जाने के बाद ही यह बंध लगाएँ।
  • ध्यान उपरोक्त तीनों बंधों (मूल बन्धउड्डियान बन्ध और जालंधर बन्ध) का भली-भांति अभ्यास हो जाने के बाद ही इस बन्ध को लगाएं।

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जिव्हा बन्ध

विधि।

  • सर्वप्रथम अभ्यास के लिए ध्यान के किसी भी आसन (पद्मासनसुखासन) में बैठें।
  • अब मेरुदंड, गर्दन और सिर को एकदम सीधा करें और अपनी आँखों को बंद कर लें। 
  • अब इस बन्ध का शांत मन से अभ्यास करने के लिए मुंह खोलें और जीभ को उलटकर तालू से लगाएं। (चित्रानुसार) 
  • इस आसन के उच्च अभ्यास के अंतर्गत जीभ को कपाल गुहा में और उसके पश्चात गले में ले जाने का अभ्यास किया जाता है।

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